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पारद मूर्च्छना | Parad Murchana | Murchana of Mercury

 पारद मूर्च्छना | Parad Murchana | Murchana of Mercury मूर्च्छना - पारद का औषध के रूप में निर्माण करने के लिये अनेक विधियों का उपयोग किया जाता है। सामान्यतः पारद की वह, अवस्था जब उसे औषध के रूप में प्रयोग करने योग्य बना लिया जाता है उसे मूर्च्छना कहते है। पारद की दो प्रकार की मूर्च्छना होती है सगन्ध मूर्च्छना तथा निर्गन्ध मूच्छंना । गन्धक के साथ पारद को मूर्च्छना की जाती है वह सगन्ध मूर्च्छना कहलाती है। सगन्ध मूर्च्छना पुनः दो प्रकार की होती है। अग्नि संयोग द्वारा तथा निरग्नि विधि से। अग्नि के संयोग से जो सगन्ध मूर्च्छना की जाती है उसेक रससिन्दूर, मकरध्वज आदि उदाहरण है एवं निरग्नि सगन्ध मूर्छना के उदाहरण विभिन्न प्रकार के आनन्द भैरव, इच्छा भेदी आदि खरलीय रस माने जाते हैं। इसी प्रकार निर्गन्ध साग्नि मूच्छांना के अन्र्तगत रसकपूर, रसपुष्प आदि का सग्रह किया गया है तथा निरग्नि निर्गन्ध मूर्च्छना में मुग्धरस आदि माने जा सकते हैं। तत्तदिवधि प्रभेदेन रसस्याव्यभिचारतः। ब्याधिधातकता या स्यात् सा मता मूर्च्छना बुधैः।           अर्थात् विभिन्न प्रकार की रसशास्त्रीय क्...

पारद के दोष, शोधन व संस्कार impurities and purification of mercury

 पारद के दोष, शोधन व संस्कार impurities and purification of mercury पारद के दोष (Dosh of mercury) — पारद में 12 दोष बतलाए गए हैं। यथा —  नैसर्गिक दोष   —  'विषं वह्निर्मलश्चेति दोषा: नैसर्गिकास्त्रयः।' (र.र.समु. ११/१७)           नैसर्गिक दोष तीन होते हैं — विष, वह्नि (अग्नि), मल। इनके सेवन से शरीर में क्रमश मरण, सन्ताप व मूर्च्छा से सम्बन्धित प्रभाव दिखाई देते हैं।  यौगिक दोष – 'यौगिको नाग वङ्गौ द्वौ' (र.र. समु. ११/१८)           अर्थात यौगिक दोष में नाग और वंग नामक दोष आते हैं। इनके प्रभाव से शरीर में जाडयता और आध्मान उत्पन्न हो जाते हैं।  औपाधिकदोष (कञ्चुकदोष) —  औषधिकाः पुनश्चान्ये कीर्तिताः सप्तकञ्चकाः। भूमिजा गिरिजा वार्जा द्वे च द्वे नागवङ्गजे॥ पर्पटी पाटनी भेदी द्रावी मलकरी तथा। अन्धकारी तथा ध्वाङ्गी विज्ञेयाः सप्तकञ्चुकाः॥ (र.र.समु.११/१९२१)           पारद में 7 औपाधिक दोष होते हैं जिन्हें कञ्चक दोष भी कहा गया है भूमिज, गिरिज, वारिज, नागज दो, वंगज दो। इन्हीं को पर्पटी, प...

पारद का परिचय , उत्पत्ति, भेद व मुख्य खनिज , Introduction, origin, types and main ore's of mercury

 पारद का परिचय , उत्पत्ति, भेद व मुख्य खनिज , Introduction, origin, types and main ore's of Mercury          आयुर्वेद में रसशास्त्र बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है।  रसशास्त्र, में रस शब्द से पारद को ग्रहण किया जाता है। यद्यपि संस्कृत साहित्य एवं आयुर्वेद वांग्मय में रस शब्द से अनेक शब्दों का ग्रहण किया जाता है । यथा—पारद, स्वरस, जल, द्रव, निर्यास, स्वाद, हर्ष, अनुराग, ध्वनि, बालक, सुवर्ण, विष, अमृत, शुक्र, वीर्य, मधुरादि षड्रस, शृंगरादि नव रस, शरीर के सप्त धातुओं में आद्य आहार परिणाम धातुरस तथा रास्ना, पाठा, शल्लकी आदि द्रव्यों को भी रस शब्द से सूचित किया गया है।           रस ही ब्रह्म है ऐसी श्रुतियों का वचन है। इस रस को प्राप्तकर पुरुषार्थ करने वाला पुरुष आनन्द को प्राप्त करता है, सिद्ध होता है, तृप्त होता है तथा परम आनन्दमय अमृतत्व को प्राप्त करता है। रसशास्त्र में रस शब्द की निम्नलिखित निरुक्ति दी गयी है —  (1) रसनात् सर्वधातूनां रस इत्याभिधीयते।           अर्थात् पारद सभी धातुओं को खो जाता है अत: ...

आयुर्वेद में बस्ति कर्म ; Basti Karma in Ayurveda

आयुर्वेद में बस्ति कर्म , Basti Karma in Ayurveda परिचय - प्राचीनकाल में गाय, बैल, भैंस आदि के मूत्राशय या बस्ति को लेकर संशोधित कर उसका ही इस कार्य में प्रयोग किया जाता था, इसलिए इस क्रिया को बस्तिकर्म कहा जाता है। बस्ति की परिभाषा - वह क्रिया जिसमें औषधों के क्वाथ, तैल, क्षीर, मांसरस, रक्त आदि तरल पदार्थों को बस्तियन्त्र में भरकर गुदद्वार में तैल लगाकर उसमें बस्तिनेत्र प्रविष्ट कर, बस्तिपुटक को दबाकर तरल पदार्थ को पक्वाशय में प्रविष्ट किया जाता है उसे बस्ति कहते हैं।           सामान्यतः बस्ति' शब्द अनुवासन, उत्तरबस्ति आदि सभी बस्तियों के लिये प्रयोग में लिया जाता है। प्रयोजन, उपयोग एवं महत्त्व 1. बस्ति द्वारा चेहरे पर झुर्रीं, पड़ना असमय में बाल पकना, त्वचा की सिकुड़न और बालों का झड़ना रोका जाता है। यौवन को चिरकाल तक कायम रखने के लिए और बुढ़ापे के आगमन पर रोक लगाने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। 2. प्रबलतम वातदोष की चिकित्सा वस्ति' द्वारा की जाती है। अतः बस्ति को "चिकित्सार्द्ध' कहा गया है। शरीर या मन के आधे से अधिक रोग वात के कारण होते हैं तथा दूसरे दोषो...

आयुर्वेद में नस्य कर्म ; Nasya Karma in Ayurveda

आयुर्वेद में नस्य कर्म , Nasya Karma in Ayurveda परिचय – औषधि अथवा औषध सिद्ध स्नेहों को नासामार्ग से दिया जाना नस्य कहलाता है। अरूणदत्त ने "नासायां भवं नस्यम्'' ऐसा कहा है और यह व्याख्या व्याकरणसिद्ध भी है । भावप्रकाश ने "नासाग्राह्य' औषध को नस्य कहा है। नस्य के पर्याय - शिरोविरेचन, नस्तः कर्त, शिरोविरेक, नावन, मूट विरेचन, नस्तःप्रच्छर्दन आदि । परिभाषा - शिरःशून्यता को हटाने, ग्रीवा, स्कन्ध, वक्षःस्थल का बल बढ़ाने और दृष्टि के तेज के संवर्धन के लिए जिस स्नेहन नस्य का प्रयोग किया जाता है उसे नस्य कहा जाता है।           जो औषध द्रव्य सूक्ष्मचूर्ण अथवा द्रव के रूप में नासा मार्ग द्वारा सुँघाया अथवा टपकाया जाता है उसे नस्य कर्म कहते हैं। ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषानस्यमिष्यते । नासा हि शिरसो द्वारं तेन तद्व्याप्य हन्ति तान् ।। (अ.ह.सू. 20/1)           जत्रु के ऊपर रहने वाले अर्थात शिर आदि के विकारों के लिये नस्य की विशेष उपयोगिता होती है क्योंकि नासा को शिर का द्वार समझा जाता है और इस द्वार से नस्यौषध प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण शिर में व्याप्त...

आयुर्वेद में विरेचन कर्म ; Virechan Karama in Ayurveda

आयुर्वेद में विरेचन कर्म , Virechan Karama in Ayurveda वमन कर्म परिचय – "तत्र दोष हरणं अधोभागं विरेचन संज्ञकम् ।" (च.क. 1/4)           शरीर के अधोभाग से या गुद मार्ग से मल, दोषादि को निकालने की क्रिया को विरेचन की संज्ञा दी गई है। यहाँ दोष व मल अबाधकर शल्य की संज्ञा भी आचार्य ने दी है। “उभयं वा शरीरमल विरेचनात् विरेचनसंज्ञां लभते।" (च.क. 1/4)           आचार्य चरक ने विरेचन शब्द को शोधन क्रिया का बोधक बताया है जिसके अन्तर्गत वमन (ऊर्ध्वविरेचन) शिरोविरेचन, मूत्रविरेचन शुक्र विरेचन आदि अर्थो में प्रयुक्त किया है।           सामान्य अर्थ में विरेचन का तात्पर्य गुद मार्ग से दोषों का बाहर निकालना ही समझते हैं। प्रयोजन एवं महत्व           पंचकर्म द्वारा पित्त दोष का शोधन, विरेचन कर्म द्वारा किया जाता है। विरेचन औषधियों में आग्नेय एवं जल तत्व की अधिकता होती है जिससे यह अधोमार्ग से दोषों को बाहर निकालता है। 1. शरीर के मल का संशोधन - जिस व्यक्ति के शरीर में मल, रक्त पित्त, आदि दोष अधिक मात्रा में...

आयुर्वेद में वमन कर्म ; Vaman Karama in Ayurveda

आयुर्वेद में वमन कर्म (vamana karma in ayurveda) परिभाषा - शरीर में स्थित दोषों को ऊर्य मार्ग (मुख माग) द्वारा शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को वमन कर्म कहते हैं । वमन कर्म के अन्तर्गत मुख्यतया कफ दोष को शोधित किया जाता है। तत्र दोषहरणमूर्ध्वमार्ग वमनसंबकम् (च. क. 1/4)           आचार्य चरक ने वमन को ऊर्ध्वविरेचन भी कहा है। विरेचन का अर्थ है दोष व मलों को बाहर निकालना । अतः ऊर्ध्व मार्ग से मुख द्वारा दोषों को बाहर निकालने को वमन की संज्ञा दी गई है।           वमन द्वारा जिन दोषों का निर्हरण होता है उनमें सर्वप्रथम कफ दोष उसके पश्चात् पित्त दोष तथा अन्त में वात् दोष का निर्हरण होता है। तीनों दोषों को निकालने के लिए वमन का प्रयोग होता है। किन्तु मुख्यतया कफ दोष का निर्हरण इसमें विशेष होता है। अतः कफ दोष को निकालने के लिए वमन सर्वश्रेष्ठ कर्म है।           वमन कर्म में शोधन के लिए जो उल्टी करायी जाती है यह एक शोधन कर्म है। जबकि किसी भी रोग, ज्वर, उदर रोग आदि में या स्वतन्त्र रूप से उल्टी होती है उसे छर्दि रोग कहते ...

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