अष्टविध आहार विधि-विशेषायतन , ashtavidh aahar vidhi visheshaytan

अष्टविध आहार विधि-विशेषायतन , ashtavidh ahar vidhi visheshaytan


          आहार को समुचित प्रकार से सेवन किया जाय तो अमृत है। यदि हम सन्तुलित आहार का ग्रहण कर रहे हैं तथा उसे विधि-विधान नियमों द्वारा ग्रहण नहीं कर रहे हैं तो वह स्वास्थ्यवर्द्धक के स्थान पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। आचार्य चरक ने चरक संहिता में आहार ग्रहण करने की आठ विधियों का वर्णन किया है। इसलिए इसे " अष्टविध आहार विधि विशेषायतन" कहा जाता है। ये आहार विधि विशेषायतन निम्नलिखित हैं - 

"खल्विमान्यष्टावाहारविधि विशेषायतनानि भवन्ति। तद्यथा- प्रकृतिकरणसंयोगराशि देशकालोपयोगसंस्थोपयोवत्रष्टमानि" (भवन्ति) (च.वि. 1/21)

(1) प्रकृति
(2) करण
(3) संयोग
(4) राशि
(5) देश
(6) काल
(7) उपयोग संस्था
(8) उपयोक्ता।

(1) प्रकृति — आहार द्रव्यों में जो स्वभाव होता है उसे प्रकृति कहते हैं। यह उनके गुरु, लघु आदि गुणों के सम्मिलित योग के कारण होता है, जैसे - उड़द की दाल की प्रकृति गुरु है तथा मूंग के दाल की प्रकृति लघु है। आहार द्रव्यों के प्रकृति को जानकर हितकर द्रव्यों का ही सेवन करना चाहिए।

(2) करण – स्वाभाविक गुण युक्त द्रव्यों में जो संस्कार किया जाता है उसे करण कहते हैं। दूसरे गुणों का द्रव्यों में आने का नाम संस्कार है। आहार द्रव्यों के पकाने आदि संस्कारों के पश्चात् उनके स्वाभाविक गुणों के स्थान पर अन्य गुण द्रव्य में आ जाते हैं। द्रव्यों में ये गुण उन्हें जल में भिगोने, अग्नि के संयोग से, शोधन करने, मन्थन करने, देश-काल के कारण, भावना आदि से विशेष बने हुए पात्र आदि रखने से, समय बीत जाने पर स्वयं आ जाते हैं, यथा—कठिन द्रव्य को जल में पीसने से मृदु बनाया जा सकता है। पञ्चविध कल्पनाओं यथा - क्वाथ, फाण्ट आदि से द्रव्यों के गुणों में परिवर्तन लाया जा सकता है। यथा - धान गुरु होता है उसे भूनकर लघु बनाया जाता है। विष आदि हानिकारक द्रव्यों को शोधन के द्वारा गुणकारक बनाया जा सकता है। जो द्रव्य शोथ को उत्पन्न करने वाले हैं, यथा-दही को मथकर शोथहर बनाया जा सकता है। इस प्रकार विभिन्न द्रव्यों को संस्कारों के द्वारा शरीर के लिए हितकारी बनाया जा सकता है।

(3) संयोग — दो या दो से अधिक द्रव्यों के मिलने को संयोग कहते हैं। यह संयोग एक विशेष कार्य को करने वाला होता है जो संयुक्त द्रव्य में रहने वाले एकल द्रव्य से नहीं होता, यथा—हम भोजन में रोटी, दाल, चावल आदि मिलाकर खाते हैं। यह उनका संयोग शरीर के लिए लाभप्रद भी हो सकता है तथा हानिकर भी हो सकता है। हानिकर संयोग से हमेशा शरीर की रक्षा करनी चाहिए। जैसे—मधु व घी की समान मात्रा में संयोग विष के समान होता है। मधु, मछली तथा घृत को मिलाकर खाने से कुष्ठ रोग को उत्पत्ति होती है। ये सभी द्रव्य आहार में अहितकर है अत: इनका प्रयोग बहुत सोच-समझकर करना चाहिए।

(4) राशि – आहार द्रव्यों का भोजन में प्रयोग करने के लिए कितनी मात्रा लेनी है इसकी दो विधियाँ हैं – प्रत्येक द्रव्य का पृथक्-पृथक् प्रमाण करना परिग्रह कहलाता है तथा सभी द्रव्यों को एक प्रमाण में लेना सर्वग्रह कहलाता है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन्स आदि का अलग-अलग विचार कर ग्रहण करना परिग्रह कहलाता है तथा भोजन की सब प्रकार की सामग्री पर विचार कर इकट्ठे ग्रहण करना सर्वग्रह कहलाता है। आहार की मात्रा निश्चित करने के लिए दोनों प्रकार की राशियों पर विचार करना आवश्यक होता है तभी शरीर स्वस्थ बना रहता है।

(5) देश – स्थान को देश कहते हैं। द्रव्यों की उत्पत्ति अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती है। अत: देश शब्द का प्रयोग स्थान विशेष के लिए किया जाता है जिस स्थान पर जो वस्तु उत्पन्न होती है वहाँ के निवासियों के आहार में वह सामान्यत: उपस्थित रहती है तथा वह द्रव्य वहाँ के निवासियों के लिए सामान्यतः सात्म्य होता है परन्तु अन्य स्थान पर ले जाने पर वहाँ उपयोग में लाने वालों के लिए सात्म्य है अथवा नहीं। इस पर विचार करने के पश्चात् ही उस द्रव्य को भोजन के रूप में ग्रहण करना श्रेयस्कर रहता है।

(6) काल – काल दो प्रकार का होता है-नित्यग व आवस्थिक। नित्यग काल ऋतु की अपेक्षा करता है जबकि आवस्थिक काल रोग की अवस्था की अपेक्षा करता है। व्यक्ति जिस रोग से पीड़ित है उसको उस रोग के शमन के लिए जिस प्रकार के आहार द्रव्यों की आवश्यकता होती है उसी के अनुसार आहार का सेवन करना चाहिए। नित्य सेवन की जाने वाली वस्तुओं से यह भिन्न होता है। नित्यग में ऋतु के अनुसार जो आहार द्रव्य सात्म्य हैं उन्हीं का सेवन करना चाहिए। आहार का प्रयोग करते समय इन कारणों पर ध्यान देना आवश्यक होता हैं।

आहार का प्रयोग निम्नलिखित कालों में करना चाहिए - 

1) शरीर में हल्कापन का अनुभव होने पर।
2) मल-मूत्र विसर्जन के पश्चात् इन्द्रियों के शुद्ध होने पर।
3) अत्यन्त शुद्ध उद्गार होने पर।
4) अपान वायु के ठीक प्रकार से निकल जाने पर।
5) भोजन की इच्छा होने पर।
(6) शारीरिक व मानसिक थकान होने पर।
(7) उदर के मुलायम होने पर।

(7) उपयोग संस्था – आहार के उपयोग के नियमों को उपयोग संस्था कहते हैं। यह भोजन के पच जाने के लक्षणों की अपेक्षा करता है। जैसे – 
(1) आहार करते समय पथ्य एवं अपथ्य दोनों का विचार करके भोजन
ग्रहण करना चाहिए।
(2) भोजन को हमेशा उचित मात्रा में ग्रहण करना चाहिए।
(3) असमय में भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए।

(8) उपयोक्ता – जो व्यक्ति आहार द्रव्यों का सेवन करता है उसे उपयोक्ता कहते हैं। व्यक्ति को कौन सा आहार सात्म्य है तथा कौनसा असात्म्य है इसका विचार करना उपयोक्ता के लिए आवश्यक है। अत: उपर्युक्त आठों तथ्यों पर विचार कर भोजन करने से शरीर का संवर्धन होता है तथा आयु बढ़ती है।

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