आयुर्वेद में संधान कल्पना , Sandhan Kalpana in Ayurveda

  आयुर्वेद में संधान कल्पना


संधान कल्पना का परिचय – 

          सन्धान कल्पना का ऐतिहासिक अध्ययन करने से पता चलता है कि वैदिक काल से ही सुरा, सोमरस आदि मादक कल्पनाओं के विभिन्न स्वरूपों का निर्माण एवं सेवन किया जाता है, लेकिन उस समय चिकित्सा के उद्देश्य से इनका प्रयोग करने का वर्णन नहीं मिलता। इसके चिकित्सा उद्देश्य से प्रभावों एवं निर्माण विधि का विस्तृत वर्णन आयुर्वेदीय संहिताओं (चरक-सुश्रुत-वाग्भट) में देखने को मिलता है। 

          'सन्धान' से तात्पर्य किण्वीकरण (Fermentation) से है । यह एक विशिष्ट प्रक्रिया हैं जिसमें औषधि द्रव्य को दवद्रव्य (Liquid substance) के साथ मिश्रित कर, गुड़, शहद, धाय पुष्पादि संधान हेतु कार्यकारी द्रव्यों को मिट्टी की हाँडी में बन्द कर कुछ समय रखते हैं। इस प्रकार निश्चित समय के बाद किण्वीकरण की क्रिया शुरू हो जाती है, जिससे औषधि की कार्मुकता (Efficacy) और सवीर्यतावधि (Validity) में वृद्धि होती है।

परिभाषा :- 

द्रवेषु चिरकालस्थं द्रव्यं यत्सन्धितं भवेत्।
आसवारिष्टभेदैस्तु प्राच्यते भेषजोचितम्।। (शार्ङ्ग.म.ख. 10/1)

          क्वाथ आदि द्रवद्रव्य में औषधि द्रव्य प्रक्षेप, गुड़, मधु आदि डाल कर घड़े का मुख बन्द कर चिरकाल तक (10 दिन, 15 दिन या 30 दिन तक) स्थिर रख देते हैं इसे सन्धान कल्पना कहते हैं।

संधान कल्पना के भेद (Type's of Sandhan Kalpana) :- सन्धान कल्पना के मुख्यत: दो भेद बतलाए गए हैं :- 

(1) आसव
(2) अरिष्ट

यद पक्वौषधाम्बुभ्यां सिद्धं मद्यं स आसवः।
अरिष्ट: क्वाथ सिद्ध ..............।। (शार्ङ्ग०म०ख० 10/2)


आसव – औषधि द्रव्यों का बिना पाक किए जल, स्वरस, गुड़, प्रक्षेेप आदि  मिलाकर सन्धान क्रिया करना 'आसव' कहलाता हैं। 

अरिष्ट – औषधि द्रव्यों का क्वाथ बना कर गुड़, प्रक्षेेप आदि  मिलाकर बनाई गई सन्धान कल्पना को अरिष्ट कहते हैं।

सन्धान कल्पना निर्माण विधि :– यदि अरिष्ट बनाना हो तब औषधियों का मोटा चूर्ण करने के बाद क्वाथ तैयार कर लें और अगर आसव बनाना हो तब स्वरस या हिम कल्पना तैयार करने के बाद इस औषधि द्रव्य को सन्धान पात्र में डालकर मधुरांश, धातकी पुष्प या मधूक पुष्प और अन्य प्रक्षेप द्रव्यों का मोटा चूर्ण डालकर मुख को कपड़े से बाँध कर निर्वात स्थान पर शास्त्र में निर्दिष्ट समय (20 दिन या 30 दिन) तक रखें, परीक्षण के उपरान्त छान कर सुरक्षित रख लें।

संधान कल्पना चित्र 1

संधान कल्पना चित्र 2



सन्धान परीक्षण विधि :- सन्धान के लगभग एक सप्ताह के बाद पात्र में सुन सुन या बुदबुदे फूटने जैसी हल्की-हल्की आवाज आना शुरु हो जाती है लेकिन यह आवाज पात्र के बिल्कुल नजदीक से सुनने पर ज्ञात होती है जिसका कारण किण्वीकरण के प्रारम्भ में Co2 गैस का बनना बताया जाता है।

          पात्र मुख में जलती हुई तीली ले जाने पर यदि बुझ जाये तब प्रक्रिया जारी है और अगर तीली लगातार जलती रहे तो आसव या अरिष्ट तैयार हो चुका है यह समझना चाहिए, किण्वीकरण क्रिया समाप्त होने पर ऑक्सीजन गैस की स्थिति होने से तीली जलती रहती है।


आसवारिष्ट की मात्रा (Dose) :- 1 पल (शार्ङ्गधर), परन्तु वर्तमान में 1 से 2.5 तोला तक उपयोग किया जाता है।

सवीर्यतावधि (Validity) :- 

'पुराणाः स्युर्गुणैर्युक्ता आसवा धातवो रसाः।' (शार्ङ्गधर)

आसव-अरिष्ट जितने पुराने हों उतने अधिक गुणकारी होते हैं।


संधान हेतु आवश्यक जानकारियाँ

(1) औषधि द्रव्य परीक्षण (Testing of drug's) :- जिस औषधि को सन्धान हेतु उपयोग में लाना है पहले उसका भलीभाँति परीक्षण कर लेना चाहिए, द्रव्य रस-गुण-वीर्य विपाक युक्त होना चाहिए, सड़े-गले, जीर्ण, घुन लगे और निर्वीर्य द्रव्य का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(2) कल्पना का चयन (Selection of preparation) :- कुछ द्रव्य ऐसे होते हैं जिनका आसव बनाया जाता है कुछ का अरिष्ट, अत: विचार कर द्रव्य की स्वरस-क्वाथ आदि कल्पनाओं का निर्माण करना चाहिए।

          क्वाथ निर्माण करते समय शास्त्र में यदि निर्दिष्ट हो तब उतना जल डालकर अवशेष रखें, द्रव्यानुसार चार गुना अथवा आठ गुना जल में क्वाथ कर चतुर्थांश या अर्धवशेष रखना चाहिए।

(3) स्थान चयन (Selection of place) :- सम्यक् सन्धान के लिए ऐसे स्थान की जरुरत होती है जहाँ का तापमान एक समान (नियन्त्रित) रहता हो, संहिताओं में पात्र को धान के मध्य या भूसी में रखने का विधान है लेकिन वर्तमान में तापमान नियन्त्रित कमरों (Air conditioned room's) का निर्माण होने से यह समस्या नहीं रहती है।

(4) पात्र चयन (Selection offermentation pot.) :- प्राचीन काल में इसके लिए मिट्टी के चिकने घड़ों (घृत भावित घड़े) को उपयोग में लाया जाता था कई बार सन्धानोपरान्त पात्र कमजोर होने से फूट जाता था और द्रवद्रव्य के चू-चू कर निकलने से औषधि भी व्यर्थ जाती थी परन्तु वर्तमान में मिट्टी के घड़े के स्थान पर लकड़ी के ड्रम, सीमेन्ट की टंकियाँ एवं काच के जार काम में लिए जाते हैं।

(5) ऋतु चयन (Selection of seasion) :- आसवारिष्ट निर्माण हेतु वसन्त एवं शरद् ऋतु श्रेष्ठ मानी गई हैं।

(6) तापमान (Temperature) :- अत्यधिक शीतकाल या ग्रीष्मकाल में सन्धान प्रक्रिया सम्यक् रूप से सम्पन्न नहीं हो पाती है अत: पात्र को ऐसे स्थान पर रखना चाहिए जहाँ का तापमान 30 से 35 सेन्टिग्रेड रहता हो।

(7) चूर्ण भेद का चयन (Selection of Type of Powder) :– प्रक्षेप द्रव्यों का मोटा चूर्ण (Coarse powder) डालना चाहिए क्योंकि बारीक चूर्ण (Fine powder) डालने से गाद (Sedimentation) अधिक बनती है।

(8) किण्वीकरण योग्य खाली स्थान (space for fermentation) :– सन्धान हेतु डाला गया द्रवद्रव्य (Liquid substance) पात्र के 2/3 भाग तक ही होना चाहिए ताकि किण्वीकरण अच्छी तरह हो सके।

(9) मधुर द्रव्य का मिश्रण (mixing sweet substance) :– मधुर द्रव्य (गुड़ आदि) को एक साथ नहीं मिलाना चाहिए इसके दो भाग कर लें, प्रारम्भ में आधा भाग डालें, शेष आधा भाग बाद में मिलायें।

(10) मुख बन्धन :– पात्र मुख को कपड़े से बाँधकर ऊपर से शराव रख दें, कपड़मिट्टी से मुख को बन्द नहीं करना चाहिए क्योंकि सन्धान के दौरान बनने वाली Co2 गैस न निकलने से आसवारिष्ट शुक्तता (खट्टापन) को प्राप्त होते हैं, जलती तीली द्वारा परीक्षण करना भी सम्भव नहीं हो पाता है।

(11) पुष्प द्रव्य मिश्रण :– धातकी या मधूक पुष्प को पूर्णत: धूप में सुखा करके दो चार टुकड़े करके डालना चाहिए।

(12) गाद विवस्था :– आसवारिष्ट को छानकर यदि गाद ज्यादा मिश्रित हो तो उसमें निर्मली के बीज डालकर 7 या 10 दिन स्थिर रख देना चाहिए।

(13) सुगन्धित द्रव्य मिश्रण :– सुगन्धित दव्य सन्धान क्रिया पूर्ण होने के ठीक बाद मिलावें और 7-8 घण्टे पात्र का मुख बन्द कर फिर छानना चाहिए।

(14) परिक्षण की प्रधानता :– यद्यपि सन्धान की अवधि का शास्त्र में निर्देश किया गया है फिर भी परीक्षण होने पर ही प्रक्रिया को पूर्ण समझना चाहिए।

(15) आक्सीजन के लिए स्थान :– बोतल भरते समय पूरा नहीं भरना चाहिए लगभग एक इञ्च खाली रखना चाहिए क्योंकि बोतल बन्द करने के बाद भी सन्धान की क्रिया जारी रहती है। लेकिन बहुत धीरे, उस समय बनने वाली ऑक्सीजन गैस के लिए जगह होना आवश्यक है।

(16) भस्म का मिश्रण :– आसवारिष्ट में धातुओं की वारितर भस्मों को उपयोग में लाना चाहिए, लौह भस्म का मिश्रण त्रिफला प्रधान कल्पों में किया जाता है। त्रिफला स्थित कषायाम्ल (Tannic acid) लौह भस्म को शीघ्र घोलने में सहायता करता है।

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