आयुर्वेद में बस्ति कर्म ; Basti Karma in Ayurveda

आयुर्वेद में बस्ति कर्म , Basti Karma in Ayurveda


परिचय - प्राचीनकाल में गाय, बैल, भैंस आदि के मूत्राशय या बस्ति को लेकर संशोधित कर उसका ही इस कार्य में प्रयोग किया जाता था, इसलिए इस क्रिया को बस्तिकर्म कहा जाता है।


बस्ति की परिभाषा - वह क्रिया जिसमें औषधों के क्वाथ, तैल, क्षीर, मांसरस, रक्त आदि तरल पदार्थों को बस्तियन्त्र में भरकर गुदद्वार में तैल लगाकर उसमें बस्तिनेत्र प्रविष्ट कर, बस्तिपुटक को दबाकर तरल पदार्थ को पक्वाशय में प्रविष्ट किया जाता है उसे बस्ति कहते हैं।

          सामान्यतः बस्ति' शब्द अनुवासन, उत्तरबस्ति आदि सभी बस्तियों के लिये प्रयोग में लिया जाता है।


प्रयोजन, उपयोग एवं महत्त्व


1. बस्ति द्वारा चेहरे पर झुर्रीं, पड़ना असमय में बाल पकना, त्वचा की सिकुड़न और बालों का झड़ना रोका जाता है। यौवन को चिरकाल तक कायम रखने के लिए और बुढ़ापे के आगमन पर रोक लगाने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है।


2. प्रबलतम वातदोष की चिकित्सा वस्ति' द्वारा की जाती है। अतः बस्ति को "चिकित्सार्द्ध' कहा गया है। शरीर या मन के आधे से अधिक रोग वात के कारण होते हैं तथा दूसरे दोषों से होने वाले रोगों में भी वात एक प्रमुख कारण होता है, वह वात दुश्चिकित्स्य है।


3. वायु विकार के शमनार्थ – बस्तिकर्म ही सर्वोत्कृष्ट चिकित्सा है। शाखा, मर्म और कोष्ठ, इन तीनों मार्गा में होने वाले रोगों में वायु की प्रधान भूमिका होती है, क्योंकि वायुही मल, मूत्र, स्वेद, कफ, पित्तादि के विक्षेप और संघात का कारण है, जिनकी अव्यवस्था से रोग उत्पन्न होते हैं।


4. बस्ति द्वारा क्षीणवीर्य व्यक्ति को रतिकर्म - सामर्थ्य, कृश को स्थूलता, अति स्थूल को कृशता तथा नेत्रों को ज्योति देती है। बस्ति की कल्पना में अनेक औषधियों का क्वाथ, कल्क आदि मिलाया जाता है, इसलिए वह दोषों का शमन, शोधन और संग्रह करती है।

          पित्तज, कफज, संसर्गज, सन्निपातज और रक्तज रोगों में भी हितकर है। बस्ति वातज रोगों की सर्वोत्तम चिकित्सा है तथा शरीर को हष्ट पुष्ट बलिष्ठ बनाकर, वर्ण को निखारकर आरोग्यता प्रदान करती है । बस्ति का सम्यक् प्रयोग शरीर संवर्धन, आयु तथा शरीर के तेज को बढ़ाता है।



बस्ति निर्माण विधि


          बस्ति का निर्माण दो चरणों में किया जाता है - 1. बस्ति यन्त्र निर्माण, तथा 2. बस्ति औषध द्रव निर्माण

1. बस्ति यन्त्र निर्माण - बस्ति का निर्माण करने के लिए बस्ति यन्त्र की आवश्यकता होती है, जिसके दो मुख्य भाग होते हैं - 1. बस्ति नेत्र तथा 2. बस्ति पुटक।


बस्ति नेत्र - नेत्र नलिका को भी कहते हैं। इसके अग्रभाग को गुदा में प्रवेशित कराकर बस्ति क्रिया की जाती है। यह नलिका सोने, चाँदी या ताम्बे आदि धातु की बनायी जाती है। सामान्यतः पीतल, काँसा, राँगा, अस्थि, बाँस आदि की भी बनायी जाती थी। इस समय स्टील की बनी हुई नलिका का प्रयोग किया जाता है । यह मूल भाग में अंगुष्ठ जैसी मोटी और अग्रभाग में कनिष्ठिका जैसी पतली होती है।

          विभिन्न आयु के अनुसार बस्ति नेत्र की लम्बाई व छिद्र का माप भिन्न-भिन्न होता है। जो निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट है -



उत्तरबस्ति नेत्र का प्रमाण - उत्तरबस्ति के नेत्र (नलिका) को पुष्पनेत्र भी कहते हैं। यह आकार में चमेली के फूल या कनेर के पुष्प की नलिका के समान और सीधा होता है। इसकी लम्बाई 9 अंगुल तक होती है।

बस्तिपुटक – यह बस्ति यन्त्र का वह हिस्सा है जिसके अन्दर बस्ति में दी जाने वाली औषधियों को रखा जाता है । जो एक थैलीनुमा आकार का होता है। प्राचीन समय में यह पशु के मूत्राशय से बनाया जाता था। आज के परिप्रेक्ष्य में रबर का चलन होने के कारण यह रबर का बनाया जाता है अथवा फुटबाल के ब्लैडर में भी दूसरा छिद्र करके प्रयोग किया जाता है अथवा मजबूत पॉलीथीन बैग भी काम में लिया जा सकता है।

          बस्ति नेत्र एवं बस्ति पुटक को उपरोक्त बताये गये विवरण के अनुसार तैयार करते हैं। इसके पश्चात् बस्ति पुटक में औषध द्रव भरकर उसके मुख पर बस्ति नेत्र रखकर, बस्ति नेत्र की कर्णिकाओं द्वारा बस्ति पुटक को धागे से अच्छी तरह बाँध दिया जाता है । यह क्रिया बस्तिपुटक को किसी छोटे भगोने या गहरे पात्र में रखकर की जाती है जिससे बस्ति में डाले जाने वाले द्रव बिखरते नहीं हैं।

          इस बस्ति पुटक में से हवा को निकालकर बस्तिकर्म में प्रयोग में लेते हैं इस प्रकार बस्ति यन्त्र का निर्माण किया जाता है।

          बस्ति के बस्ति नेत्र एवं पुटक के निर्माण में कमी रहने पर दोनों में आठ-आठ दोष उत्पन्न हो जाते हैं जो निम्न प्रकार से हैं -


बस्ति नेत्र के दोष

1. छोटा होना

2. बहुत लम्बा होना

3. पतला होना

4. बहुत मोटा होना

5. जीर्ण शीर्ण होना

6. बन्धन का ढीला होना

7. पार्श्व में छिद्र होना

8. टेढ़ा होना आदि


बस्ति पुटक के दोष

1. विषमाकार होना

2. मांसल होना

3. छिद्रयुक्त होना

4. स्थूलाकार होना

5. जालयुक्त होना

6. वातल होना

7. स्निग्ध होना

8. क्लेदयुक्त होना आदि


          अतः बस्ति निर्माण करते समय उपरोक्त दोष न रह जाए इसका प्रयास किया जाता है।


2. बस्ति औषध द्रव निर्माण की सामान्य विधि – सामान्यतया बस्ति का औषध द्रव बस्ति के प्रकारानुसार तैयार किया जाता है । निरूह बस्ति, अनुवासन बस्ति, उत्तर बस्ति, बृहंण बस्ति, माधु तैलिक बस्ति एवं मात्रा बस्ति आदि बस्तियों के निर्माण में सामान्यतया औषध द्रव तैयार किया जाता है इस औषध द्रव में स्नेह, तैल, मधु, लवण, कल्क, क्वाथ आदि लिए जाते हैं। जहाँ अनुवासन बस्ति, यापन बस्ति, मात्रा बस्ति में स्नेह का प्रयोग होता है वहीं निरूह बस्ति में स्नेह के साथ साथ माक्षिक, लवण, कल्क, क्वाथ आदि का भी प्रयोग होता है।


2. औषध द्रव के निर्माण की सामान्य विधि – बस्ति नेत्र एवं बस्ति पुटक को स्वच्छ कर, बस्ति पुटक को किसी पात्र में रखते हैं तथा उसमें, माक्षिक, लवण, स्नेह, कल्क, क्वाथ आदि द्रव्यों को क्रमश: मिलाकर बस्ति पुटक में भरते हैं तथा घागे द्वारा बस्ति नेत्र को बस्ति पुटक में समाहित कर बाँध देते हैं।


          निम्नलिखित द्रव्य मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय रस के अनुसार अलग-अलग स्कन्धों में विभक्त किये गये हैं जो बस्ति औषध द्रव निर्माण में प्रयुक्त होते हैं।

1. मधुर स्कन्य - निम्नलिखित औषधियों का मधुर स्कन्ध में समावेश किया जाता है। इन द्रव्यों की बस्ति वातविकार में लाभप्रद होती है वैसी ही मधु, घृत और शीत द्रव्यों के साथ पित्त विकारों में प्रशस्त होती है। इसमें प्रयुक्त होने वाली औषधियों की सूची निम्न प्रकार से है - जीवक, ऋषभक, जीवन्ती, आमलकी, काकोली, क्षीरकाकोली, मधुपर्णी, मेदा, महामेदा, कर्कटश्रृंगी, श्रृंगाटिका, सहदेवा, बला, अतिबला, विदारी, अश्वगन्धा, पुनर्नवा, गोक्षुर, शतावरी, शतपुष्मा, मधुकपुष्पी, यष्टीमधु, खजूर।

2. अम्ल स्कन्ध - निम्नलिखित औषधियों का अम्ल स्कन्ध में समावेश किया जाता है - आम, करमर्द, अम्लवेतस, दाडिम, आमलकी, चांगेरी, कोल, दधि।

3. लवण स्कन्ध - निम्नलिखित औषधियों का लवण स्कन्ध में समावेश किया गया है - सैंधव, सौवर्चल, कालालवण, विड्लवण, पाक्य लवण, आनूपलवण, कूप्यलवण, बालुक, एलमोलक, सामुद्र लवण, रोमक लवण, औद्भिद, लवण, पांशुज लवण।

          इनसे अम्लद्रव्यों के साथ, गरम पानी के साथ, स्नेहों के साथ सुखोष्ण बस्ति देनी चाहिये । वातव्याधि में इसका उपयोग करते हैं ।

4. कटु स्कन्ध - निम्नलिखित औषधियों का कटु स्कन्ध में समावेश किया गया है -  पिप्पली, पिप्पलीमूल, हस्तिपिप्पली, चव्य, चित्रक, मरिच, अजमोदा, आर्द्रक, विडंग, तुबंरू, पीलु, तेजोवती, एला, कुष्ठ, भल्लातक, मज हिंगु, किलिम, मूलक, लशुन, करंज, शिग्रु। 

          इनके क्वाथ में मधु, तैल, लवण मिलाकर यथावत बस्ति कफ विकार में देते हैं।

5. तिक्त स्कन्ध – निम्नलिखित औषधियों का तिक्त स्कन्ध में समावेश किया गया है - चन्दन, तुंबरू, कुटज, हरिद्धा, दारूहरिद्रा, कम्पिल्लक, पुनर्नवा, मण्डकपर्णी, अतिविषा, पटोकुलक, पाठा, गुडूची, सप्तपर्ण, अर्क, तगर, अगरू, उशीर

          इनका यथावत क्वाथ बनाकर तैल, लवणादि से संस्कार कर, कफ रोगों में विधिवत् बस्ति देते हैं।

6. कषाय स्कन्ध – निम्नलिखित औषधियों का कषाय स्कन्ध में समावेश किया गया है - अनन्तमूल, कटुका, घातकी फूल, जामुन, कमल, आम, पीपर, आम्र की मज्जा, भल्लातक, शिरीषपुष्प, शीशम, सोमवल्क (खैर), तिन्दुक, चिरौंजी, सप्तपर्ण, अर्जुन, कट्फल, अशोक, शमी, बहेड़ा, पुष्करबीज

          इनको क्वाथादि विधि से सिद्ध कर, मधु, तैल, लवण इत्यादि मिलाकर सुखोष्ण बस्ति विधिपूर्वक कफविकार में देते हैं। इनमें शीत, मधुर द्रव्यों को मिलाकर मधु और घृत मिलाकर पित्त विकार में बस्ति देते हैं।

          इस प्रकार बस्ति द्रव तैयार कर बस्ति यन्त्र द्वारा बस्ति का प्रयोग किया जाता है।


बस्ति देने की विधि - बस्तिकर्म सुविधा की दृष्टि से निम्न तीन चरणों में सम्पादित किया जाता है - 1. पूर्व कर्म, 2. प्रधान कर्म, 3. पश्चात कर्म


पूर्वकर्म


आतुर परीक्षण – बस्तिकर्म करने से पहले रोगी का परीक्षण करते हैं कि वह रोगी बस्तिकर्म के योग्य है या अयोग्य । बस्तिकर्म के योग्य होने की स्थिति में रोगी का बल, प्रकृति, मनोबल, रोग आदि की परीक्षा करते हैं।

          बस्ति नियत गुण के अनुसार तभी सिद्ध होती है, जब वह 1. दोष, 2. औषध, 3. देश, 4. काल, 5. सात्य 6. अग्नि, 7. सत्व, 8. ओज, 9. वय, 10. बल इनका यथावत् विचार कर दी जाती है।

          सामान्यतया बस्तिकर्म से पहले स्नेहन व स्वेदन पूर्वकर्म आवश्यक है।


तापक्रमादि सारणी - रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन आदि को ज्ञात कर सूचीबद्ध करते हैं ।


आतुर का आहार एवं वेशभूषा – जिसका बस्तिकर्म करना हो उस व्यक्ति को बस्तिकर्म से लगभग तीन घंटे पहले यवागु पेया आदि का लघु आहार देते हैं।

          रोगी को बस्तिकर्म के समय न अधिक तंग न अधिक ढीले कपड़े पहनाते हैं जिससे रोगी को कोई तकलीफ नहीं हो। बस्तिकर्म से कपड़े खराब हो सकते हैं इसके लिए रोगी को लुंगी या तहमत भी पहनाते हैं।


औषध योग का निर्धारण - रोगी के रोग प्रकृति के अनुसार बस्ति में प्रयुक्त औषध योग का चयन करते हैं । सामान्यतया बस्तिकर्म के लिए रोगानुसार विभिन्न औषध योग प्रयुक्त किये जाते हैं। जैसे - एरण्डमूलादि निरूह बस्ति, पिप्पल्यादि अनुवासन बस्ति आदि ।


आवश्यक उपकरण एवं परिचारक (Required Equipment & Attendents)


उपकरण - बस्ति नेत्र, बस्ति पुटक, द्रोणी या टेबल, बस्ति पॉट लटकाने का स्टेण्ड, एनिमा पॉट, मापअंकित बस्ति मल निष्कासन पात्र (Pot with measurement), छोटी भगोनी, कटोरी आदि बर्तन, तौलिया, औषध द्रव्य आदि, गिलास, उष्ण जल का पात्र, नेपकीन, एप्रीन, नेत्र बंधन पट्टिका (Eye Bandage), दस्ताने (Gloves) आदि ।


परिचारक (Attendent) - बस्तिकर्म के लिए दो परिचारक की आवश्यकता होती है।


प्रधान कर्म


बस्ति क्रिया विधि - रोगी को टेबल (द्रोणी) पर पूर्वाभिमुख रखते हैं रोगी का सिर पूर्व दिशा में रखते हैं । रोगी को बस्तिकर्म के बारे में सान्त्वना देते हुए समझाते हैं।

          उपरोक्तानुसार औषध योग निर्माण करने के पश्चात् रोगी को टेबल या द्रोणी पर लिटाया जाता है । रोगी को वाम पार्श्व को नीचे रखकर करवट में लिटाया जाता है। रोगी का बाँया हाथ सिर के नीचे तथा बाँया पैर बिलकुल सीधा, दाँये पैर का घुटना मुड़ा हुआ रखते हैं ताकि बस्ति देते समय बस्ति द्रव सीधे मलाशय में प्रवेश करे ।

          उचित मात्रा में सुखोष्ण और अच्छी तरह से मथा हुआ बस्ति द्रव्य बस्तियन्त्र में भरकर तैयार कर लेते हैं।

          रोगी को बाँये करवट लिटाकर बस्ति देते हैं। क्योंकि गुदा की वलियाँ, मलाशय, पक्वाश एवं ग्रहणी, ये अवयव वामपार्श्व पर शयन करने से समानान्तर स्थिति में होते हैं, जिससे बस्ति इन अवययों में पहुँचकर अपना कार्य कर आसानी से लौट आती है। बस्ति के कुछ द्रव्य तैल, घृत दुग्ध, मांस रस आदि स्नेह के अणु प्रसरणशील होकर ग्रहणी तक पहुँचकर उसकी सक्रियता में वृद्धि करते हैं ।

          किसी कारणवश से वामपार्श्व शयन में रूकावट हो तो जैसी सुविधा प्रतीत हो वैसे ही लिटाकर बस्ति देते हैं।

          रोगी को अपने हाथ का ही तकिया लगाकर सोने का निर्देश देते हैं। उसका बाँया पैर एकदम सीधा प्रसारित हो और दाहिना पैर जानुसन्धि से तथा वंक्षणसन्धि से मोड़कर वाम पैर पर टिकाकर रखें गुदा में धन्वन्तरम् तैलम या घृत लगाकर, चिकनी कर लेते हैं और बस्तियन्त्र के नेत्र को भी स्निग्ध कर गुदा में 4 से 6 इंच तक धीरे-धीरे पृष्ठवंश के समानान्तर रखते हुए प्रवेश कराते हैं।

          बस्तिद्रव्य पूरी मात्रा में नहीं देते हैं । नहीं तो कुछ वायु भी अन्दर प्रविष्ट हो जाती है, जिससे पीड़ा उत्पन्न होती है। बस्तिनेत्र को सावधानी से निकालकर लगभग एक मिनट रोगी को वैसे ही रखते हैं फिर उसे उकडू बैठाकर या कुक्कुटासन में मल-विसर्जन के लिए प्रेरित करते हैं।

          रोगी वैसे ही लिटाकर अधिक देर तक बस्ति को यथाशक्ति अन्दर ही रोकने का प्रयास करने के लिये रोगी को कहते हैं। साथ ही नितम्ब को थपथपाते हैं। जब मलवेग प्रतीत हो तो मल विसर्जन के लिए बिठाते हैं।

          बस्ति प्रयोगकाल में वेग की प्रवृत्ति होने पर बस्तिनेत्र को निकाल लेते हैं और मलविसर्जन के बाद फिर दूसरी बस्ति देते हैं । नितम्ब के नीचे तकिया लगाकर उसे कुछ उँचा कर देते हैं या टेबल का सिरहाना नीचे करते हैं जिससे बस्तिद्रव्य अधिक समय तक उदर में रहकर अच्छी तरह कार्य कर सके।


सम्यक्, हीन व अतियोग का विश्लेषण - बस्तिकर्म होने के पश्चात् रोगी के उत्पन्न लक्षणों का ध्यान से निरीक्षण करते हैं। यदि हीन योग के लक्षण उत्पन्न होने पर पुनः बस्ति प्रयुक्त द्रव्यौषध देते हैं। अतियोग के लक्षण उत्पन्न हो तो विरेचन क्रिया को रोक कर विश्राम कराते हैं । सम्यक योग की स्थिति में आगे की प्रक्रिया करते हैं।


पश्चात् कर्म - बस्तिकर्म के समय व बस्तिकर्म के पश्चात् उत्पन्न लक्षणों का विश्लेषण करते हैं।


तापक्रमादि को सूचीबद्ध करना - प्रधान कर्म के पश्चात् पुनः रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन तथा जलाल्पता (Dehydration), बस्तिकर्म में निकले द्रव्य मापन आदि को ज्ञात कर सूचीबद्ध करते हैं या चार्ट बनाते हैं। पूर्वकर्म में लिये गये विवरण व अभी लिये विवरण में अन्तर ज्ञात कर रोगी की वर्तमान स्थिति को ज्ञात करते हैं।


रोगी के औषध, आहार (संसर्जन कर्म आदि) - बस्तिकर्म के पश्चात् रोगी को विश्राम देते हैं, तत्पश्चात् संसर्जन कर्म करते हैं जिसमें लघु आहार जैसे- यवागु, पेया आदि निर्धारित मात्रा में क्रमशः देते हैं। रोगी को न अधिक शीत तथा न अधिक उष्ण अर्थात् समशीतोष्ण एवं शीतल तथा तीव्र वातरहित वातावारण में रहने का निर्देश देते हैं।

विहार सम्बन्धी निर्देश – बस्तिकर्म के पश्चात् रोगी को सतशीतोष्ण कक्ष में विश्राम करवाते हैं तथा सायंकाल को शेष होने वाले बस्तिकर्म के बारे में समझाते हैं तथा आश्वस्त करते हैं ।

          तेज आवाज में बोलना, अधिक देर तक बैठना, देर तक खड़े रहना, शोक करना, क्रोध करना, अधिक चलना, मैथुन, रात्रि जागरण, दिवा शयन आदि का निषेध करने के लिए निर्देश देते हैं।


बस्ति के प्रकार - बस्ति के विभिन्न प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित हैं । बस्ति जिन-जिन विधियों, अधिष्ठान, द्रव्य, कर्म से कार्य करती हैं उन्हीं के आधार पर बस्तियों के भेद निम्न प्रकार से बताये गये हैं - 


विधि भेद से

विधि भेद से निम्न तीन प्रकार हैं - 

1. निरूह बस्ति

2. अनुवासन बस्ति

3. उत्तर बस्ति


          अधिष्ठान के आधार पर भेद जिस शारीरिक अवयव पर बस्ति का प्रयोग किया जाता है उसी के नाम के आधार पर अधिष्ठान भेद से बस्ति के निम्न प्रकार बताये हैं - 


अधिष्ठान भेद से चार भेद

1. पक्वाशयगत बस्ति

2. गर्भाशयगत बस्ति

3. मूत्राशयगत बस्ति

4. व्रणगत बस्ति

पक्वाशयगत - यह बस्ति पक्वाशय में दी जाती है।

गर्भाशयगत - यह गर्भाशय में दी जाती है।

मूत्राशयगत - इसका प्रयोग मूत्राशय में होता है।

व्रणगत — यह बस्ति व्रण या घाव में शोधन, रोपनार्थ दी जाती है।


निरूह बस्ति का ज्ञान - वह बस्ति जो पक्वाशय या मलाशय में अधिक देर तक नहीं रूक पाती तथा तुरन्त ही कुछ ही मिनट में बाहर निकल जाती है उसे निरूह बस्ति कहते हैं । निरूह बस्ति को आस्थापन बस्ति भी कहते हैं क्योंकि यह आयु को बढ़ाने वाली होती है। निरूह बस्ति में निम्नानुसार औषध द्रव्य प्रयुक्त होते हैं - 


सुश्रुतोक्त निरूह वर्ग - क्षीर दुग्ध, अम्लवर्गीय द्रव्य, मूत्रवर्ग के मूत्र, क्वाथ, मांसरस, लवण, त्रिफला, मधु, शतपुष्या, एला, त्रिकटु, स्नेह, सर्षप, देवदारू, हिंगु, उशीर, मंजिष्ठा, त्रायमाणा, यवानी, वचा, रास्ना, हरिद्रा, यष्टीमधु, चन्दन, मदनफल, कपूर, बिल्वगिरी, इन्द्रयव। 


          इस वर्ग की औषधियों को निरूह वर्ग कहते हैं।


वाग्भटोक्त निरूह द्रव्य संग्रह - मदनफल, कुटज, कुष्ठ, देवदाली, यष्टीमधु, वचा, दशमूल, यव, कुलत्थ, त्रिवृत, मधु, लवण, सौंफ। 

          उपरोक्त द्रव्यों में निम्न सूत्रानुसार क्रमशः मिश्रण तैयार कर निरूह बस्ति का निर्माण करते हैं।


माक्षिकं लवणं स्नेहं कल्कं क्वाथमिति क्रमात् (अ.सू. 28/42)


निरूह बस्ति के कार्य - वयःस्थापन, सुखायुष्य, अग्निवर्धन, मेधावर्धन, स्वर-वर्ण प्रसादन, युवा बाल वृद्ध इन सबके लिए निरूपद्रव, सर्वरोगनाशन, दोष, मल, मूत्र शोधन, दृढ़ताकरण, शुक्र, बल वर्धन, और सभी शरीर के संचित मलों का निर्हरण करने का कार्य।


अनुवासन बस्ति का ज्ञान - अनुवासन बस्ति में स्नेह या औषध द्रव निरूह की अपेक्षा कम मात्रा में प्रयोग किया जाता है जिससे वह बस्ति पक्वाशय में अधिक समय तक ठहर (अनुवासन कर) सके उसे अनुवासन बस्ति कहते हैं। अनुवासन बस्ति में स्नेह का प्रयोग किया जाता है। अतः इसे स्नेह बस्ति भी कहते हैं। अनुवासन बस्ति में स्नेह के साथ साथ निम्न औषधियाँ भी प्रयुक्त की जाती हैं, जो निम्न प्रकार से हैं -


अनुवासन के स्नेह द्रव्य - घृत, वसा, तैल, मज्जा


अनुवासन गण - पाटला, अग्निमन्थ, बिल्व, श्योनाक, काश्मरी, शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी कटेरी, बला, गोक्षुर, बड़ी कटेरी, एरण्ड, पुनर्नवा, यव, कुलत्य, गुडूची, मदनफल, पलाश, स्नेह, लवण


अनुवासनोपग गण - रास्ना, देवदारू, बिल्व, मदनफल, सौंफ, रक्त पुनर्नवा, श्वेत पुनर्नवा, गोखरू


अनुवासन बस्ति का निर्माण एवं प्रयोग विधि - अनुवासन बस्ति में स्नेह, या स्नेह से सिद्ध औषध तैल, जैसे-पिप्पल्यादि तैल आदि का निर्माण किया जाता है । अनुवासन बस्ति का निर्माण स्नेह में ही होता है, इसमें कल्क, शहद, क्वाथ इत्यादि द्रव्य नहीं मिलाये जाते हैं।

          यह स्नेह कम मात्रा में लगभग 50 मि.ली से 150 मि.ली. तक रोगी को बस्ति के रूप में दिया जाता है। अनुवासन बस्ति की मात्रा रोगी की बस्ति को पक्वाशय में रोकने की शक्ति के आधार पर तय की जाती है। यदि रोगी 70 मि.ली. की मात्रा को कम से कम एक घण्टे तक सहन कर अन्दर रोक सकता है तो यह मात्रा निश्चित हो जाती है।

          अनुवासन बस्ति को एक दिन तक रोक सकते हैं, इसके बाद भी बस्ति बाहर निकलने पर दूसरी तीक्ष्ण बस्तियाँ देकर बाहर निकालते हैं।

          अनुवासन बस्ति सीरिंज व रबर कैथेटर द्वारा भी दे सकते हैं। इसकी सम्पूर्ण विधि पूर्वकर्म, प्रधानकर्म तथा पश्चात् कर्म आदि उपरोक्त बस्ति देने की सामान्य विधि के अनुसार ही होगी।


अनुवासन बस्ति के अयोग्य रोग व रोगी - अनास्थाप्य, अभुक्त भक्त, नवज्वर, पाण्डु, कामला, प्रमेह, प्रतिश्याय, अरोचक, मन्दाग्नि, दुर्बल, प्लीहोदर, कफोदर, उरूस्तम्भ, प्रमेह, कुष्ठ


अनुवासन बस्ति के कार्य - बल-वर्णप्रद, मनःप्रसादन, पुष्टिकर, वीर्यवर्धक, वात की रूक्षता, लघुता एवं शैत्य विनाशक और वातज रोगों की श्रेष्ठतम चिकित्सा है। हाथ पैर की स्तब्धता, संकोच, पंगुता, अस्थिभंग, वातकृत गात्रशूल, आध्मान, विबन्ध, आमाशय पक्वाशयशूल, कुक्षिशूल, अरूचि, और अग्निमान्ध में अनुवासन बस्तिकर्म श्रेष्ठ है।


काल, कर्म एवं योगबस्ति का ज्ञान -  जो बस्ति विभिन्न संख्याओं के आधार पर निर्धारित होती है उसे काल, कर्म एवं योगबस्ति क्रम कहते हैं।


          इन बस्तियों के तीन संख्या समूह विभाजित हैं – 

1. कर्म बस्ति, 2. काल बस्ति तथा 3. योग बस्ति

1. कर्म बस्ति – कर्म बस्ति में 30 बस्तियाँ दी जाती हैं। पहले 1 अनुवासन, फिर अनुवासन और निरूह का क्रम बारी-बारी से चलता है तथा दोनों 12-12 दी जाती हैं । अन्त में 5 अनुवासन बस्तियाँ दी जाती हैं । इस प्रकार कुल 1+12+12+5 कुल 30 बस्तियाँ दी जाती हैं। इसमें 18 अनुवासन और 12 निरूह बस्तियाँ दी जाती हैं इसे कर्म बस्ति कहा जाता है।


2. काल बस्ति - इसमें 16 बस्तियाँ दी जाती हैं। पहले 1 अनुवासन, फिर क्रम से 6 अनुवासन और 6 निरूह बस्ति तथा अन्त में फिर 3 अनुवासनबस्ति दी जाती है । इस प्रकार 1+6+6+3 कुल 16 बस्तियों की संख्या पूर्ण होती है जिसमें 10 अनुवासन और 6 निरूहबस्ति दी जाती है। यह कालबस्ति है।


3. योग बस्ति - इसमें 8 बस्तियाँ दी जाती है। पहले 1 अनुवासन बस्ति, फिर 1 निरूह एवं 1 अनुवासन क्रम से 3 निरूह और 3 अनुवासन तथा अन्त में पुनः 1 अनुवासन बस्ति दी जाती है। इस प्रकार 1+3+3+1 कुल 8 बस्तियाँ दी जाती हैं।


उत्तरबस्ति का परिचय एवं ज्ञान


परिभाषा - जो बस्ति उत्तर मार्ग से दी जाती है उसे उत्तर बस्ति कहते हैं । उत्तर मार्ग से अभिप्राय मूत्राशय एवं गर्भाशय से है। उत्तर का अर्थ श्रेष्ठ भी होता है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ गुणों से युक्त होने वाली बस्ति ।

          उत्तरबस्ति में निरूह की अपेक्षा बस्ति नेत्र एवं बस्ति पुटक का प्रमाण भिन्न होता है।


उत्तरबस्ति में प्रयुक्त नेत्र एवं पुटक का निर्माण


          इसमें प्रयुक्त नेत्र का आकार 14 अंगुल होता है। नेत्र की आकृति कनेर के फूल के मूल जैसी, गोपुच्छ के समान मूल में चौड़ी और अग्रभाग में सिकुड़ी होनी चाहिए । इसका छिद्र सरसों के दाने के समान होता है। इसमें कर्णिकाएँ दो होती हैं । मूलभाग में बस्ति को बाँधने के लिए पहली तथा दूसरी बीचों बीच में होती है । नेत्र को मध्य कर्णिका तक अर्थात 6 से 7 अंगुल तक ही प्रवेशित किया जाता है।

          इसमें प्रयुक्त पुटक का निर्माण इसकी मात्रा कम होने के कारण छोटा ही होता है । यह बकरी या भेड़ की बस्ति से निर्मित की जाती है। बालिकाओं में नेत्र 1 अंगुल ही प्रविष्ट किया जाता है ।


उत्तर बस्ति योग्य रोग एवं रोगी – जिन जिन रोगी एवं रोगों में उत्तर बस्ति का प्रयोग होता है वे निम्न हैं - मूत्रीकसाद, मूत्रजठर, मूत्रकृच्छ, मूत्रोत्संग, मूत्रातीत, अष्ठीला, वातबस्ति, उष्णवात, वातकुण्डलिका, ग्रन्थि, बस्तिकुण्डल, शर्करा, अश्मरी, बस्तिशूल, वंक्षणशूल, मेहनशूल


बृहणबस्ति का परिचय एवं ज्ञान


परिभाषा - जिन बस्तियों द्वारा शरीर में बृंहण कार्य किया जाता हैं उन्हें बृंहण बस्ति कहते हैं ।

          बृंहण बस्ति कृश शरीर का पोषण कर रोगी का वजन आदि बढ़ाती है । मांस धातु को पुष्ट करती है।


बृंहण बस्ति का निर्माण – बृंहण बस्ति के कई प्रकार के योग शास्त्र में उपलब्ध हैं । उदाहरण के तौर पर निम्न क्षीर बस्ति का वर्णन निम्नानुसार हैं - 

घृत 8 तोला

दूध 16 तोला

मधु 8 तोला

तैल 8 तोला

          इनको आलोडित कर बृंहण बस्ति तैयार की जाती है। यह वातनाशक बस्ति है। यह एक उत्तम बृंहण बस्ति है।


बृहण बस्ति देने की विधि – बृंहण बस्ति मधु, घी, दुग्ध, शतावरी, अश्वगन्धा, विदारीकन्द आदि से सिद्ध क्षीर, मांसरस, आदि द्वारा धीरे-धीरे शरीर में दी जाती है । बृंहण बस्ति में बस्तिदान का समय डेढ़ से दो घण्टे तक का होता है । सुविधा की दृष्टि से वर्तमान में उपलब्ध एनिमा पॉट प्रयोग में लाया जा सकता है । बृंहण बस्ति शरीर का पोषण करती है और पक्वाशय में पूर्ण शोषित हो जाती है । बृंहण बस्ति का पुनः त्याग नहीं होता।


बृंहण वस्ति के उपयोग – बृंहण बस्ति परिणामशूल को दूर करती है, शुक्र धातु को बढ़ाती है । रोगी के मांसादि धातुओं को परिपुष्ट कर वजन बढ़ाती है । यह वातनाशक बस्ति है।


माधुतैलिक वस्ति का परिचय एवं ज्ञान


परिभाषा - जिस बस्ति में शहद व तेल का प्रयोग समान मात्रा में मुख्य रूप से किया जाता है उन्हें माधुतैलिक बस्ति कहते हैं । यह शरीर में से कफ प्रधान दोषों को निकालती है।


माधुतैलिक बस्ति का निर्माण - माधुतैलिक बस्ति के कई प्रकार के योग शास्त्र में उपलब्ध हैं। उदाहरण के तौर पर निम्न एक प्रकार की माधुतैलिक बस्ति का वर्णन दिया जा रहा है - 

मधु 120 ग्राम

तैल 120 ग्राम

सैंधा नमक 12 ग्राम

सौंफ कल्क 25 ग्राम

एरण्डमूल क्वाथ 500 मि.ली.


          इनको निश्चित क्रमानुसार मिलाकर माधुतैलिक बस्ति तैयार की जाती है। यह कफनाशक बस्ति है, जो कफज विकारों का शमन करती है।


          माधुतैलिक बस्ति के उपयोग माधुतैलिक बस्ति एक रसायन है। प्रमेह नाशक है, अर्शनाशक है, उदरकृमिनाशक और कृमिजन्य विकारनाशक भी है।


मात्राबस्ति का परिचय एवं ज्ञान - 


परिभाषा – बस्ति के औषध द्रव की ऐसी न्यून मात्रा जो सदा प्रयोज्य है तथा जिसमें कोई पथ्य परिहार नहीं है उसे ही मात्रा बस्ति कहते हैं।


मात्रावस्ति की निर्माण विधि - किसी भी स्नेह या औषध सिद्ध स्नेह को इसमें प्रयोग किया जा सकता है, इसकी मात्रा 1-1/2 पल (72 ग्राम) के लगभग है।


मात्राबस्ति के उपयोग – यह बालक, वृद्ध सुकुमार प्रकृति के लोगों में बृंहण करती है और वात रोगों को नष्ट कर वातानुलोमन करती है।


बस्ति के सम्यक् योग लक्षण –

प्रभूत विट्कता

प्रभूत मूत्रता

प्रभूत वातता

मल, पित्त, कफ और वायु का विसर्जन होना ।

शरीर में हलकापन लगना

भोजन में रूचि उत्पन्न होना

अग्नि तीक्ष्ण होना

पक्वाशय, मलाशय आदि में लघुता उत्पन्न होना

रोगोपशमन

प्रकृतिस्थता

बल बढ़ना


हीन योग के लक्षण

1.रूजा–शिर, हृदय, नाभि बस्ति, गुद और मेद्र या योनि में रूजा उत्पन्न होना ।

2. शोथ,

3. प्रतिश्याय,

4. कर्तिका-गुदा में कैंची से काटने के समान वेदना होना, 5. हल्लास-मुख से लालास्राव होना,

6. वातसंग,

7. मूत्रसंग,

8. श्वासकृच्छ,

9. अल्प वेगता,

10. अरूचि व

11. शरीर भारी होना।


अतियोग के लक्षण

1. अंगसुप्ति

2. अंगमर्द

3. वलम

4. कम्प

5. निद्रा

6. दौर्बल्य

7. उन्माद

8. हिक्का

9. तमः प्रवेश


बस्ति व्यापद् - परिचारक अथवा चिकित्सक के प्रमाद स्वरूप अथवा क्रियाविधि में त्रुटिजन्य निम्न 12 प्रकार के प्रमुख बस्ति व्यापद् होते हैं - अयोग, अतियोग, क्लम, हिक्का, प्रवाहिका, आध्मान, ऊर्ध्वप्राप्ति, अंगार्ति। 

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