पारद के दोष, शोधन व संस्कार impurities and purification of mercury

 पारद के दोष, शोधन व संस्कार impurities and purification of mercury


पारद के दोष (Dosh of mercury) — पारद में 12 दोष बतलाए गए हैं। यथा — 


नैसर्गिक दोष  —  'विषं वह्निर्मलश्चेति दोषा: नैसर्गिकास्त्रयः।' (र.र.समु. ११/१७)


          नैसर्गिक दोष तीन होते हैं — विष, वह्नि (अग्नि), मल। इनके सेवन से शरीर में क्रमश मरण, सन्ताप व मूर्च्छा से सम्बन्धित प्रभाव दिखाई देते हैं। 


यौगिक दोष – 'यौगिको नाग वङ्गौ द्वौ' (र.र. समु. ११/१८)


          अर्थात यौगिक दोष में नाग और वंग नामक दोष आते हैं। इनके प्रभाव से शरीर में जाडयता और आध्मान उत्पन्न हो जाते हैं। 


औपाधिकदोष (कञ्चुकदोष) — 


औषधिकाः पुनश्चान्ये कीर्तिताः सप्तकञ्चकाः।

भूमिजा गिरिजा वार्जा द्वे च द्वे नागवङ्गजे॥

पर्पटी पाटनी भेदी द्रावी मलकरी तथा।

अन्धकारी तथा ध्वाङ्गी विज्ञेयाः सप्तकञ्चुकाः॥

(र.र.समु.११/१९२१)


          पारद में 7 औपाधिक दोष होते हैं जिन्हें कञ्चक दोष भी कहा गया है भूमिज, गिरिज, वारिज, नागज दो, वंगज दो। इन्हीं को पर्पटी, पाटनी, भेदी, द्रावी, मलकरी, अन्धकारी एवं ध्वांक्षी कहा है भूमिज से कुष्ठ, गिरिजा से जड़ता, वारिज से वात विकार, द्रावी, मलकरी, अन्धकारी व ध्वांक्षी से त्रिदोष विकार उत्पन्न होते हैं।


पारद का ग्राह्य स्वरूप — 

          वह पारद देखने पर जो अन्तः भाग से नीलाभ और बहि: भाग से शुभ्र (उज्ज्वल) वर्ण का हो साथ ही मध्याह्न सूर्य के समान देदीप्यमान हो उसे शुद्ध पारद समझना चाहिए, यही इसका ग्राह्य स्वरूप है औषधार्थ एवं संस्कारार्थ इसे ही उपयोग में लाना चाहिए।


पारद का अग्राह्यस्वरूप (अशुद्ध) — 

         वह पारद जो देखने पर धूम्रवर्णी (धुंए के जैसा वर्ण), पाण्डुवर्ण अथवा मिश्रित रंग वाला हो (चित्र-विचित्र रंग वाला), ऐसे पारद को रसकर्म हेतु उपयोग में नहीं लेना चाहिए।


पारद का शोधन — पारद खानों से प्राप्त होता है भूगर्भ में नाग, वंग, चपल आदि के सम्पर्क में आने से दोषयुक्त पारद विष तुल्य होता है ऐसे पारद को औषधि कार्य हेतु उपयोग में लाया जायेगा तव शरीर में अनेकों विकार उत्पन्न करने वाला होता है अशुद्ध पारद के सेवन से मृत्यु तक होने की सम्भावना रहती है। इसलिए औषधि कार्य एवं संस्कार से पूर्व शोधन अत्यावश्यक है।


आचार्यों ने पारद का शोधन दो प्रकार से बतलाया है-

(1) सामान्य शोधन (2) विशेष शोधन


यथा — 

व्याधौ रसायने चैव द्विविधा सा परिकीर्तिता।

या शुद्धि : कथिता व्याधौ सा नेष्टा हि रसायने॥

रसायने तु या शुद्धिः सा व्याधावपि कीर्तिताः।

(र.रा.सु.२/२५)


          उपरोक्त दो प्रकार के शोधन के बारे में रसाचार्यों ने बतलाते हुए कहा है कि सामान्य शोधन व्याधि प्रतिकार के लिए और विशेष शोधन रसायन गुणों की प्राप्ति के लिए विशेष रूप से किया जाता है परन्तु जो शोधन व्याधि नाशनार्थ किया जाता है उससे रसायनगुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती, वहीं रसायन गुणों की प्राप्त्यर्थ किया गया शोधन व्याधि निवारण में भी समर्थ होता है।


सामान्य शोधन — 


आधिव्याधि विनाशार्थं प्रयोगार्थं रसेषु च।

सामान्यशोधनं शस्तं रसतन्त्रविशारदैः॥ (र.त.तरङ्ग ५/२१)


          रसतरङ्गिणीकार आचार्य सदानन्द अनुसार रोग निवारण एवं रसौषधियों में उपयोग हेतु पारद का सामान्य शोधन कर लेना भी प्रशस्त है जैसा कि अन्य रसतन्त्रकारों ने भी कहा है।


प्रथम विधि — 


रसेश्वरं समसुधा रजसा मर्दयेत् त्र्यहम्।

ततो द्विगुणवस्त्रान्तर्गालितं खल्वके न्यसेत् ॥

रसोनं निस्तुषं तुल्यं तदर्धं लवणं हरेत्।

तत्कल्के मर्दयेत् सूतं यावदायाति कृष्णताम्॥

कृष्णं कल्कं परित्यज्य तथा प्रक्षाल्य युक्तितः।

एवमेकेनवारेण रसेन्द्रः शुद्धिमाप्नुयात् ॥

(र.त.तरङ्ग-५/२७-२९)


          सर्वप्रथम लौह खरल में समान भाग अशुद्ध पारद एवं सुधारज (चूना) डालकर तीन दिन तक मर्दन करते हैं, तत्पश्चात् द्विगुण सूती वस्त्र से छानकर प्राप्त पारद को पुन: खरल में डालकर समान भाग निस्तुष (छिलका रहित) लहसुन, उसके आधा भाग सैन्धव लवण डालकर कल्क के कृष्ण वर्ण होने पर्यन्त अनवरत मर्दन करके फिर गरम जल से प्रक्षालन कर लेते हैं इस तरह पारद शुद्ध हो जाता है।


द्वितीय विधि — 


एकेन लशुनेनापि शुद्धो भवति पारदः।

पिष्टो लवणसंयुक्तो सप्ताहं तप्तखल्वके (आयु.प्र. १/१६५)


          आचार्य माधव ने एकमात्र द्रव्य लहसुन से ही पारद का शुद्ध होना कहा है,तप्त लौहखरल में अशुद्ध पारद, निस्तुष लहसुन एवं सैन्धव लवण के साथ 7 दिन तक मर्दनकर तत्पश्चात् गरम जल से प्रक्षालन कर शुद्ध पारद प्राप्त कर लेते हैं।


          पारद का शोधन पत्थर या लौह खरल में करना चाहिए क्योंकि इनके अलावा अन्य ताँबा, चाँदी, पीतल आदि धातुऐं पारद से चिपक जाती है अर्थात् पारद इन धातुओं का ग्रास करता है। इसलिए इन धातुओं के खरल एवं पात्रों में पारद को नहीं रखना चाहिए।


विशेष शोधन


नागदोष निवारण — 


धमेष्टिका हट्टविलासिनीनां सोर्णैस्तु चूर्णै: परिमर्च सूतम्।

प्रक्षालयेदम्लजलेन सम्यक् ततो रसो मुञ्चति नागदोषम् ॥

(र.त.तरङ्ग-5/22)


          गृहधूम (घर का धुंआ), ईंट का चूर्ण, हरिद्रा और ऊन को पारद से 1/16 भाग लेकर एक दिन मर्दन कर, काजी से प्रक्षालन कर लेते हैं।


वंगदोष निवारण — 


'मृगेक्षणाङ्कोल निशोत्थ चूर्णै: सूतो जहातीह तु वंगदोषम्।'

(र.त.तरङ्ग 5/23)


          इन्द्रायण, अंकोल एवं हरिद्रा चूर्ण को पारद से 1/16 भाग लेकर एक दिन मर्दन कर काजी से प्रक्षालन कर लेते हैं।


विषदोष निवारण — 


'चित्रमूलं विषं हन्ति' (र.र.समु. 11/34)


'विषापहवी त्रिफला प्रशस्ता' (र.त.तरङ्ग 5/24)


          आचार्य वाग्भट के अनुसार चित्रकमूल के साथ और रसतरङ्गिणीकार के अनुसार त्रिफला के साथ मर्दन करने से पारद के विषदोष का निवारण होता है।


अग्निदोष निवारण — 


'त्रिफला वह्निनाशिनी' (र.र.समु.11/34)


'चित्रोऽग्निदोषं विनिहन्ति शीघ्रम्।' (र.त.तरङ्ग 5/23)


          आचार्य वाग्भट के अनुसार त्रिफला और रसतरङ्गिणीकार के अनुसार चित्रकमूल के साथ पारद का मर्दन करने से अग्निदोष का निवारण होता है।


मलदोष निवारण — 


'गृहकन्या मलं हन्यात्' (र.र.समु.11/34)


'दोष मलोत्थं खलु राजवृक्षः' (र.त. तरङ्ग 5/23)


          आचार्य वाग्भट के अनुसार घृतकुमारी रस और रसतरङ्गिणीकार मतानुसार अमलतास गूदा के साथ पारद का मर्दन करने से मलदोष का निवारण होता है।


उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त आचार्यों ने पारद में चापल्य, गिरि, असह्याग्नि दोष भी माने हैं। जिनका निवारण निम्न प्रकार से किया जाता है। यथा — 


चापल्यदोष निवारण — 


          कृष्णधत्तूर बीज/पंचांग चूर्ण के साथ पारद का मर्दन करने से 'चापल्यदोष' का निवारण हो जाता है। 


गिरिदोष निवारण — 


          त्रिकटु चूर्ण के साथ पारद का मर्दन करने से 'गिरिदोष' का निवारण हो जाता है। 

 

असह्याग्नि दोष निवारण


          गोखरू चूर्ण के साथ मर्दन करने से 'असह्याग्नि दोष' का निवारण हो जाता है।



पारद के संस्कार


स्यात्स्वेदनं तदनु मर्दनं मूर्छनञ्च उत्थापनं पतनरोधनियामनानि

सन्दीपनं गगनभक्षणमानमत्र संचारणा तदनुगर्भगताद्रुतिश्च

बाह्यद्रुतिः सूतकजारणास्याद्रागस्तथा सारणकर्म पश्चात्

संक्रामणं वेधविधि: शरीरे योगस्तथाऽष्टादशधोऽत्रकर्मच

(र.र.समु.11/14-16)


'रसरलसमुच्चयकार' ने पारद के 18 संस्कार बतलाये हैं। यथा — 

1. स्वेदन

2. मर्दन

3. मूर्च्छन

4. उत्थापन

5. पातन (त्रिविधि)

6. रोधन (बोधन)

7. नियामन

8. संदीपन (या दीपन)

9. गगनभक्षण

10. चारणा 11. गर्भद्रुति

12. बाह्य द्रुति

13. सूतक जारणा

14. रञ्जन (राग)

15. सारणा

16. संक्रामण

17. वेधकर्म

18. विधि (सेवन)


          पारद के यद्यपि 18 संस्कार बतलाए गए हैं, परन्तु औषधि प्रयोग एवं रसायन कार्य हेतु प्रथम 8 संस्कार ही पर्याप्त हैं।


संस्कार की आवश्यकता — 


'शोधनं दोषहरणं संस्कारश्च बलतेजसोऽभिवर्द्धनम्।' (ध.ध.सं.)


          शोधन से पारद के दोषों का निवारण होता है। जबकि संस्कारों के माध्यम से पारद के बल एवं तेज की अभिवृद्धि होती है।


'संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते' (च.वि.)


          आचार्य चरक ने संस्कार द्वारा द्रव्य में विशेष गुणों का उत्पन्न होना कहा है।


रसायन प्रयोगेषु रसागम विशारदः।

रसराजं प्रयुञ्जीत् कर्माष्टक विशोधितम्॥(र.त.तरङ्ग 5/43)


          रस ग्रन्थकारों के अनुसार रसायन हेतु प्रयोग करने के लिए शुद्ध पारद के 8 संस्कार अवश्य करना चाहिए।


पारद के अष्ट संस्कार और प्रयोजन — 


1. 'स्वेदन' से 'पातन' पर्यन्त संस्कारों द्वारा पारद दोषमुक्त होता है।


2. रोधन (बोधन), नियामन एवं दीपन संस्कार दोषमुक्त पारद में बल एवं तेज की अभिवृद्धि और बुभुक्षा जाग्रत करने के लिए किए जाते हैं।


पारद के आठ संस्कार-विधि एवं उद्देश्य


1. स्वेदन संस्कार — 


त्र्यूषणं लवणासुर्यों चित्रकाकमूलकम्।

क्षिप्त्वा सूतो मुहुःस्वेद्यः काचिकेन दिनत्रयम्॥ (र.र.समु. 11/29)


          पारद से 1/16 भाग त्रिकटु (शुण्ठी-मरिच-पिप्पली), सैन्धव लवण, राई, चित्रकमूल, आर्द्रक एवं मूली ले कर कल्क बना करके कपड़े में कल्क को बिछाकर उस पर पारद को रख कर पोट्टली को काजी में लटका (दोलायन्त्र विधि द्वारा) करके 3 दिन तक मृदु अग्नि पर स्वेदन करते हैं।


'दोष शैथिल्यकारि' (र.त.)


          स्वेदन करने से पारद स्थित दोष शिथिल होते हैं।


2. मर्दन संस्कार — 


धूमेष्टिका चूर्णं तथा दधि गुडान्वितम् ।

लवणासुरीसंयुक्तं क्षिप्त्वा सूतं विमर्दयेत् ॥ (र.र. समु. 11/30)


          स्वेदन संस्कार से प्राप्त पारद से 1/16 भाग गृहधूम, इष्टिका चूर्ण, दही, गुड, सैन्धवलवण और राई को कल्क करके खरल में 3 दिन तक मर्दन करते हैं।


'बहिर्मलनिवृत्तये' (र.त.)


          मर्दन संस्कार से पारद के बाह्य दोषों का निवारण होता है।


3. मूर्च्छन संस्कार — विशेष शोधनवत् विष, वह्नि, मल दोष निवारणार्थ मर्दन संस्कार से प्राप्त पारद को क्रमश: चित्रकमूल, त्रिफला एवं घृतकुमारी लेकर (पारद से 1/16 वाँ भाग) मर्दन करते हैं आचार्य वाग्भट ने 7 बार मूर्च्छन करने के लिए कहा है परन्तु आयुर्वेदप्रकाशकार आचार्य माधव ने एक बार करने के लिए कहा है। यदि धातुवाद के लिए उपयोगी बनाना हो तब 7 बार मूर्च्छन करना चाहिए।


'दोषशून्य प्रजायते' (र.र.समु.)


'वंगादिभुजकञ्चुकदोषनाशनम्' (रसेन्द्रचि.)


          मूर्च्छन संस्कार से पारद नाग, वंग एवं सप्तकञ्चुक आदि दोषों से शून्य (रहित) हो जाता है।


4. उत्थापन संस्कार — मूर्च्छित पारद का डमरुयन्त्र द्वारा ऊर्ध्वपातन करते हैं फिर काजी से प्रक्षालन करते हैं।


'पूतिदोष निवृत्यर्थम्' (र.र.समु.)


          उत्थापन संस्कार से पूतिदोष (नाग, वंग) का निवारण होता है।


5. पातन संस्कार — उत्थापित पारद से चतुर्थांश शुद्ध ताम्र लेकर पिष्ठी बना करकेडमस्यन्त्र द्वारा तीन बार ऊर्ध्व एवं सात बार अध: पातन करते हैं।


अध: पातनार्थ — त्रिफला, सहिजन, अपामार्गमूल, सैन्धव लवण एवं राई के साथ पारद का मर्दन कर अध: पातन करते हैं।


तिर्यक पातनार्थ —  धान्याभ्रक के साथ (पारद से 1/4 भाग) शु. पारद को काञ्जी के साथ मर्दन कर तिर्यक पातन करते हैं।


'वंगनागौ परित्यज्य शुद्धो भवति सूतकः' (र.र. समु.)


'सर्वदोषमुक्ति नागवंगत्यजेद्रस:' (आयु.प्र.)


'कृत्रिमदोषस्तन्मुक्तिः पातन त्रयात्' (रसेन्द्र चि.)


          पातन संस्कार द्वारा पारद स्थित नाग, वंग एवं कृत्रिम आदि सर्व दोषों का निवारण होता है।


6. बोधन (रोधन) संस्कार — स्वेदन से पातन पर्यन्त संस्कारों से पारद मन्द वीर्य वाला एवं क्लान्त हो जाता है। ग्रास लेने की क्षमता (वुभुक्षा) भी नहीं रहती है। अत: पुन: वीर्योत्कर्ष एवं वुभुक्षा जाग्रत करने हेतु बोधन संस्कार करते हैं।


          सृष्टयम्बुज (सृष्टिर्मूत्रशुक्रशोणितरूपाऽम्बुजं सैन्धवं लवणम्) के साथ स्वेदन करते हैं। (र.र.समु.11/48)


         सृठट्यम्बुज से मूत्र, शुक्र, आर्तव एवं सैन्धव लवण को ग्रहण करने के लिए कहा गया है।


          पारद एवं सैन्धवलवण युक्त घोल को घडे में डालकर मुखबन्द कर 3 दिन रखते हैं। (र.चू. 4/87)


'सूतो वीर्यं प्राप्नोत्यनुत्तमम्' (र.र.समु. 11/48)


          बोधन संस्कार से पारद वीर्यवान बनता है।


'लब्धश्वासो प्राप्त पुंस्त्वं, षण्ढभावं विमुञ्चति' (रसेन्द्र चि.)


          बोधन संस्कार द्वारा पारद प्राणवान एवं षण्ढ़ता (अकर्मण्यता) को त्याग कर कार्यकारी बनता है।


7. नियामन संस्कार – बोधन संस्कार से पारद में चंचलता आ जाती है जिसके नियमन हेतु यह संस्कार किया जाता है।


'फणिलशुनाम्बुजमार्कवकर्कोटीचिञ्चिका स्वेदात्' (र.ह.त. 2/10)


          पानपत्र, लहशुन, सैन्धवलवण, भृगराज, बाँझककोडा एवं इमली गूदा प्रत्येक को शु. पारद से 1/16 वाँ भाग लेकर कल्क में पारद को रखकर कपड़े की पोट्टली को 3 दिन काजी में (दोलायन्त्र विधि द्वारा) स्वेदन करते हैं।


'चपलोऽसौ संनियम्यते' (र.हृत.)


          पारद की चपलता खत्म होकर नियन्त्रित होती है।


8. दीपन संस्कार — 


'भूखगटंकणमरिचैलवणासुरिशिग्रुकाजिकैस्त्रिदिनं स्वेदेन......' (र.ह.त. 2/15)


          फिटकरी, कासीस, सुहागा, मरिच, सैन्धव लवण, राई, सहिजन छाल को नियामन संस्कार से प्राप्त पारद से षोडषांश लेकर 3दिन काजी में स्वेदन करते हैं।


          चित्रकमूल क्वाथ या काजी में तीन दिन स्वेदन करते हैं।(आयु.प्र. 1/101-103)


'ग्रासार्थी जायते सूतः।' (र.ह.त.,रसार्णव)


          दीपन संस्कार से पारद ग्रास ग्रहण करने में समर्थ होता है।

Popular posts from this blog

धारणीय एवं अधारणीय वेग , dharnya aur adharnya vega

अष्टविध आहार विधि-विशेषायतन , ashtavidh aahar vidhi visheshaytan

आयुर्वेद में संधान कल्पना , Sandhan Kalpana in Ayurveda