धारणीय एवं अधारणीय वेग , dharnya aur adharnya vega (A) धारणीय वेग - व्यक्ति द्वारा सात्म्य एवं हितकर आहार सेवन करने से उसका सम्यक् प्रकार से पाचन होकर रसादिधातुओं व पुरीषादि मलों का निर्माण होता है। रसादि धातुएँ शरीर का पोषण करती हैं जबकि मलों का निष्कासन या उत्सर्जन शरीर के विभिन्न मार्गों द्वारा होता है जिससे शरीर का व्यापार चलता रहता है। यदि इन मलों को शरीर में रोक दिया जाय तो ये व्याधियाँ उत्पन्न कर देती हैं इसलिए इनका धारण करना शरीर के लिए हानिकारक है अत: इन्हें अधारणीय वेग कहते हैं। आचार्यों ने निम्नलिखित 13 प्रकार के वेगों को अधारणीय वेग कहा है - न वेगान् धारयेद्धीमाजातात् मूत्रपुरीषयोः । वरेतसो व वातस्य बच्छाः क्षवथोर्न च॥ बोदगारस्य व जृम्भाया व वेगान् क्षुत्पिपासयोः। द वाष्पस्य च विद्राया विश्वासस्य श्रमेण च॥ (च.सू.7/3-4) (1) मूत्र (2) पुरीष (3) रेतस् (शुक्र) (4) वायु (अपान वायु) (5) वमन (6) क्षवथु (छौंक) (7) उद्गार (डकार) (8) जृम्भा (जम्हाई) (9) क्षुत् (भूख) (10) पिपासा (प्यास) (11) वाष्प (आंसू) (12) निद्रा (13) परिश्रम से उत्पन्न निश्वास। ...
अष्टविध आहार विधि-विशेषायतन , ashtavidh ahar vidhi visheshaytan आहार को समुचित प्रकार से सेवन किया जाय तो अमृत है। यदि हम सन्तुलित आहार का ग्रहण कर रहे हैं तथा उसे विधि-विधान नियमों द्वारा ग्रहण नहीं कर रहे हैं तो वह स्वास्थ्यवर्द्धक के स्थान पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। आचार्य चरक ने चरक संहिता में आहार ग्रहण करने की आठ विधियों का वर्णन किया है। इसलिए इसे " अष्टविध आहार विधि विशेषायतन " कहा जाता है। ये आहार विधि विशेषायतन निम्नलिखित हैं - "खल्विमान्यष्टावाहारविधि विशेषायतनानि भवन्ति। तद्यथा- प्रकृतिकरणसंयोगराशि देशकालोपयोगसंस्थोपयोवत्रष्टमानि" (भवन्ति) (च.वि. 1/21) (1) प्रकृति (2) करण (3) संयोग (4) राशि (5) देश (6) काल (7) उपयोग संस्था (8) उपयोक्ता। (1) प्रकृति — आहार द्रव्यों में जो स्वभाव होता है उसे प्रकृति कहते हैं। यह उनके गुरु, लघु आदि गुणों के सम्मिलित योग के कारण होता है, जैसे - उड़द की दाल की प्रकृति गुरु है तथा मूंग के दाल की प्रकृति लघु है। आहार द्रव्यों के प्रकृति को जानकर हितकर द्रव्यों का ही सेवन करना चाहिए। (2) करण ...
आयुर्वेद में संधान कल्पना संधान कल्पना का परिचय – सन्धान कल्पना का ऐतिहासिक अध्ययन करने से पता चलता है कि वैदिक काल से ही सुरा, सोमरस आदि मादक कल्पनाओं के विभिन्न स्वरूपों का निर्माण एवं सेवन किया जाता है, लेकिन उस समय चिकित्सा के उद्देश्य से इनका प्रयोग करने का वर्णन नहीं मिलता। इसके चिकित्सा उद्देश्य से प्रभावों एवं निर्माण विधि का विस्तृत वर्णन आयुर्वेदीय संहिताओं (चरक-सुश्रुत-वाग्भट) में देखने को मिलता है। 'सन्धान' से तात्पर्य किण्वीकरण (Fermentation) से है । यह एक विशिष्ट प्रक्रिया हैं जिसमें औषधि द्रव्य को दवद्रव्य (Liquid substance) के साथ मिश्रित कर, गुड़, शहद, धाय पुष्पादि संधान हेतु कार्यकारी द्रव्यों को मिट्टी की हाँडी में बन्द कर कुछ समय रखते हैं। इस प्रकार निश्चित समय के बाद किण्वीकरण की क्रिया शुरू हो जाती है, जिससे औषधि की कार्मुकता (Efficacy) और सवीर्यतावधि (Validity) में वृद्धि होती है। परिभाषा :- द्रवेषु चिरकालस्थं द्रव्यं यत्सन्धितं भवेत्। आसवारिष्टभेदैस्तु प्राच्यते...
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