आयुर्वेद में विरेचन कर्म ; Virechan Karama in Ayurveda
आयुर्वेद में विरेचन कर्म , Virechan Karama in Ayurveda
वमन कर्म परिचय –
"तत्र दोष हरणं अधोभागं विरेचन संज्ञकम् ।" (च.क. 1/4)
शरीर के अधोभाग से या गुद मार्ग से मल, दोषादि को निकालने की क्रिया को विरेचन की संज्ञा दी गई है। यहाँ दोष व मल अबाधकर शल्य की संज्ञा भी आचार्य ने दी है।
“उभयं वा शरीरमल विरेचनात् विरेचनसंज्ञां लभते।"
(च.क. 1/4)
आचार्य चरक ने विरेचन शब्द को शोधन क्रिया का बोधक बताया है जिसके अन्तर्गत वमन (ऊर्ध्वविरेचन) शिरोविरेचन, मूत्रविरेचन शुक्र विरेचन आदि अर्थो में प्रयुक्त किया है।
सामान्य अर्थ में विरेचन का तात्पर्य गुद मार्ग से दोषों का बाहर निकालना ही समझते हैं।
प्रयोजन एवं महत्व
पंचकर्म द्वारा पित्त दोष का शोधन, विरेचन कर्म द्वारा किया जाता है। विरेचन औषधियों में आग्नेय एवं जल तत्व की अधिकता होती है जिससे यह अधोमार्ग से दोषों को बाहर निकालता है।
1. शरीर के मल का संशोधन - जिस व्यक्ति के शरीर में मल, रक्त पित्त, आदि दोष अधिक मात्रा में संचित हों, उनको विरेचन द्वारा संशोधन कराया जाता है।
2. बुद्धि प्रसाधन और मानसिक स्थिरता - विरेचन द्वारा दोषों के अनुलोमन होने से बुद्धि में निर्मलता, इन्द्रियों में बल, जठराग्नि के दीप्त होना, उत्साह का बढ़ना तथा बुढ़ापे का देर से आना आणि लाभ होते हैं।
3. आयुष्य – शरीर के दूषित मल, मूत्र, वात, पित्त, कफ आदि विरेचन के द्वारा दूर होकर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं जिसके फलस्वरूप शरीर की बल, वर्ण एवं आयु बढ़ती है।
4. पित्तशामक में श्रेष्ठ - "विरेचनं पित्तहराणाम् श्रेष्ठः ।' विरेचन पित्त विकारों की श्रेष्ठतम चिकित्सा है क्योंकि आमाशय में स्थित विकृत पित्त को यह अधोमार्ग से निकालता है। जिससे आमाशय आदि में दाह आदि रोग कारक लक्षण शान्त हो जाते हैं।
5. रोगों की चिकित्सा में व्यापकता - विरेचन से खाये हुए आहार का मल भाग शरीर से निकाला जाता है, जिससे शरीर में वेगावरोधजन्य उत्पन्न विकार, शिरस्शूल, बैचेनी आदि दूर होती है। विरेचन द्वारा ही शोथ रोग, जलोदर आदि की चिकित्सा की जाती है। विरेचन द्वारा ज्वर में पित्त को निकालने पर शरीर का ताप कम हो जाता है। जिस रोगी के उच्चरक्तचाप हो या आन्त्रिक रक्तस्राव हो तो विरेचन द्वारा उसमें न्यूनता लाई जाती है। विरेचन द्रव्य उदर में पाक क्रिया द्वारा पचकर, रक्त में पहुँचकर दोषों को दूर कर, रक्तविकारों का शमन करते हैं।
धमनीशिरा विस्तार (Vein vcricose) और आन्त्रवृद्धि (Apendix, Hernia) आदि रोगों में विरेचन द्वारा लाभ मिलता है। गर्भाशय में रजः प्रवर्तन की क्रिया विरेचन द्वारा सम्भव है । वृक्कशोथ और वातरक्त रोगों में विरेचन लाभकारी है। विरेचन निम्न रोगों में हितकर है।
पित्तजविकार - पाण्डु, कामला, हलीमक।
रक्तजरोग -रक्तपित्त, विद्रधि, विसर्प, कुष्ठ, प्लीहा, गुल्म, व्यंग एवं वातरक्त आदि।
शोधन प्रधान रोग - उदावर्त, कृमि, गरदोष, विबन्ध, शोथ तथा धातुगत विकार आदि।
मानसिक रोगों में - भ्रम, मूर्छा, बुद्धिमान्य आदि ।
6. विरेचन द्वारा समूल दोष शोधन - विरेचक द्रव्य अपने गुण उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, व्यवायि, विकासी और अधोभाग हरण द्वारा निम्न कार्यकर रोगों का समूल नाश करते हैं -
1. अपने उष्ण गुण से दोषों का पाक कर उन्हें गला देते हैं जिससे दोष उर्ध्वगमन कर कोष्ठ (आमाशय) में आ जाते
2. तीक्ष्ण गुण से दोषों का पाचन छेदन करते है जिससे स्रावित हो जाते हैं।
3. सूक्ष्म गुण से सूक्ष्म खोतों में प्रविष्ट होकर मलों का विष्यन्दन करते हैं।
4. व्यवायि गुण से पाचन से पूर्व ही अपना प्रभाव दिखाते हैं।
5. विकासी गुण के कारण धातुओं में चिपके हुए मलों की अलग करते हैं । विरेचन द्रव्य अपने इन गुणों से युक्त होने के कारण पाचन प्रक्रिया द्वारा आत्मसात् होने के कारण हृदय के सूक्ष्म स्रोतों में जाकर धातुओं में लीन दोषों को (Heart Cornery Artery Blockage) को अपनी तीक्ष्णता छिन्न-भिन्न कर स्रोतों के मार्ग को खोलते हैं।
6. अघोभागहरण - गुण के कारण, शरीर के अधोभाग में
स्थित दोषों को बाहर निकालता है।
विरेचन जिनमें प्रशस्त होता है उन्हें विरेच्य और जिनमें अप्रशस्त होता है उन्हें अविरेच्य कहा जाता है।
विरेचन विधि
विरेचन कर्म सुविधा की दृष्टि से निम्न तीन चरणों में सम्पादित किया जाता है - 1. पूर्व कर्म, 2. प्रधान कर्म, 3. पश्चात कर्म
पूर्वकर्म
आतुर परीक्षण (Checkup of Patient) - विरेचन कर्म करने में पहले रोगी का परीक्षण करते हैं कि वह रोगी विरेचन कर्म के योग्य हैं या अयोग्य । विरेचन कर्म के योग्य होने की स्थिति में रोगी का बल, प्रकृति, मनोबल, रोग आदि की परीक्षा करते हैं। सामान्यतया विरेचन कर्म से पहले स्नेहन व स्वेदन पूर्वकर्म आवश्यक है।
तापक्रमादि सारणी (T.P.R. B.P. Weight Chart) - रोगी तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन आदि को द्वारा सूचीबद्ध करते हैं।
आतुर का आहार एवं वेशभूषा – जिसका विरेचन कर्म करना हो उस व्यक्ति को विरेचन कर्म के एक रात्रि पहले गुरू तथा उत्क्लेश करने वाले आहार दिये जाते हैं। जैसे— मालपुए, खीर, घी से तर खिचड़ी आदि, तथा प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात प्रातः 8 बजे विरेचनका करवाते हैं।
रोगी को विरेचन के समय न अधिक तंग न अधिक ढ़ीले कपड़े पहनाते हैं जिससे में रोगी को कोई तकलीफ नहीं हो। विरेचन से कपड़े खराब हो सकते हैं इसके लिए रोगी को लुंगी या तहमत भी पहनाते हैं।
औषध योग का निर्धारण - रोगी के रोग प्रकृति के अनुसार विरेचक औषध योग का चयन करते हैं। सामान्यतया विरेचन कर्म के लिए निम्न औषध योग प्रयुक्त किये जाते हैं -
कफ दोष में तीक्ष्ण, उष्ण और कटु रस के द्रव्यों से, पित्तदोष में मधुर, शीत द्रव्य का उपयोग करना श्रेयस्कर है। शार्ङ्गधर और भावप्रकाश ने निम्नोक्त द्रव्यों का प्रयोग प्रशस्त माना है -
पित्त दोषों में - त्रिफला क्वाथ, गोमूत्र और त्रिकटु का प्रयोग करें।
वात प्रधान दोषों में - त्रिवृत, सैंधव और शुण्ठीचूर्ण कांजी या मांसरस के साथ देते हैं।
दोषानुसार दी जाने वाली औषध योगों की सूची
वात प्रधान दोषों में - त्रिवृत्त चूर्ण 4 ग्रामशुण्ठी चूर्ण 1 ग्राम सेंधा नमक 1/2 ग्राम सुखोष्ण जल से ।
पित्त प्रधान दोषो में - त्रिवृत्त चूर्ण 4 ग्राम, मुनक्का के 50 मि.ली. क्वाथ के साथ।
कफ प्रधान दोषों में - त्रिफला क्वाथ 50 मि.ली., 50 मि.ली. गोमूत्र त्रिकटु चूर्ण 3 ग्राम के साथ ।
आवश्यक उपकरण एवं परिचारक
उपकरण - कुर्सी सहित मापअंकित विरेचन पात्र (Pot wity measurement), छोटी भगोनी, कटोरी आदि बर्तन, तौलिया, औषध द्रन आदि, गिलास, उष्ण जल का पात्र, नेपकीन, एप्रीन, नेत्र बंधन पट्टिक (Eye Bandage), दस्ताने (Gloves) आदि ।
परिचारक (Attendent) - विरेचन कर्म के लिए दो परिचारक की आवश्यकता होती है।
प्रधान कर्म (Pradhankarma)
विरेचन क्रिया विधि (Procedure orVirechan) - रोगी का आसन (कुर्सी) पूर्वाभिमुख रखते हैं तथा रोगी को बुलाकर विरेचनकर्म के बारे में सान्त्वना देते हुए समझाते हैं।
औषध योग निर्माण करने के पश्चात् रोगी को उपर्युक्त औषधि या उनके मिश्रण का सेवन कराया जाता है। गर्म जल, औषधादि का पान कराने से पहले, सबको नाप तौल लेते हैं। ताकि विरेचनकर्म के पश्चात् रोगी के वजन की सनीक्षा कर सकें। कई बार विरेचक औषधियाँ वमन करा देती हैं जिसके कारण ललाट पर पसीने की बूँदे दिखे तो यह जानते हैं कि दोष स्रोतों में विलीन हो रहे हैं और द्रवीभूत होकर विरेचन के लिए अधोगमन कर रहे हैं।
रोमहर्ष देखकर यह जानते हैं कि दोष अपने स्थानों से अलग होकर कोष्ठ में आ रहे हैं । आध्यमान होने पर यह समझते हैं कि दोष कोष्ठ में आ गये हैं । इस स्थिति में विरेचन योग्य कुर्सी पर बैठे रोगी को विरेचन करने के लिए प्रेरित करते हैं।यदि विरेचनकर्म नहीं होता है तो रोगी को पुनः गर्म जल पिलाते। हैं जिससे अनुलोमन होकर विरेचनकर्म होने लगता है। विरेचन के वेगों को गिनते हैं, तथा सूची में लिखते हैं।
विरेचन के वेगों का निर्णय - विरेचक योग पिलाने के पश्चात् प्रारम्भ के दो मल युक्त वेगों को वेगों में नहीं गिनते हैं । निम्न सारणी के अनुसार प्रवर, मध्य व अवर वेगों का निर्णय करते हैं:-
परिचारक का कर्तव्य है कि वह विरेचनकर्म के समय हस्तपाद् के तलवों का गर्म-गर्म स्वेदन करे। पीठ को उपर से नीचे की ओर संवाहित करे।
यदि तीन घंटे तक विरेचन नहीं होता है तो द्राक्षा आदि विरेचनोपग द्रव्यों का फाण्ट योड़ा-थोड़ा करके पिलाते हैं । विरेचन के प्रत्येक वेग के पश्चात् गर्म जल, गौ दुग्ध या द्राक्षादि का फाण्ट अथवा दोनों मिलाकर पिलाते हैं। सर्वप्रथम विरेचन में मल एवं वात का निष्कासन होता है इसके पश्चात् पीतद्रव्य (पित्त) का निष्कासन होता है तथा अन्त में कफ का निष्कासन होता है।
विरेचन के 10 वेग होने पर हीन शुद्धि, 20 वेग होने पर मध्यम शुद्धि तथा 30 वेग होने पर प्रवर शुद्धि मानी जाती है।
सम्यक्, हीन व अतियोग का विश्लेषण - विरेचन कर्म होने के पश्चात् रोगी के उत्पन्न लक्षणों का ध्यान से निरीक्षण करते हैं। यदि हीन योग के लक्षण उत्पन्न होने पर पुनः विरेचक द्रव्योषध देते हैं। अतियोग के लक्षण उत्पन्न होने पर विरेचन क्रिया को रोककर विश्राम कराते हैं । सम्यक् योग की स्थिति में आगे की प्रक्रिया करते हैं।
पश्चात् कर्म - विरेचन कर्म के समय व विरेचन के पश्चात् उत्पन्न लक्षणों का विश्लेषण करते हैं -
तापक्रमादि को सूचीबद्ध करना - प्रधान कर्म के पश्चात् पुनः रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन तथा जलाल्पता (Dehydration), विरेचन कर्म में निकले द्रव्य मापन आदि को ज्ञात कर सूचीबद्ध करते हैं या चार्ट बनाते हैं। पूर्वकर्म में लिये गये विवरण व अभी लिये विवरण में अन्तर ज्ञात कर रोगी की वर्तमान स्थिति को ज्ञात करते हैं।
रोगी के औषध, आहार (संसर्जन कर्म आदि) - विरेचन कर्म के पश्चात् रोगी को विश्राम देते हैं, त्तपश्चात् संसर्जन कर्म करते हैं जिसमें लघु आहार जैसे—यवागु, पेया आदि निर्धारित मात्रा में क्रमशः देते हैं। रोगी को न अधिक शीत तथा न अधिक उष्ण अर्थात् समशीतोष्ण एवं शीतल तथा तीव्र वातरहित वातावारण में रहने का निर्देश देते हैं।
विहार सम्बन्धी निर्देश - विरेचन कर्म के पश्चात् रोगी को सतशीतोष्ण कक्ष में विश्राम करवाते हैं तथा सायंकाल को शेष होने वाले विरेचन के बारे में समझाते हैं तथा आश्वस्त करते हैं।
तेज आवाज में बोलना, अधिक देर तक बैठना, देर तक खड़े रहना, शोक करना, क्रोध करना, अधिक चलना, मैथुन, रात्रि जागरण, दिवा शयन, आदि का पालन न करने के लिए निर्देश देते हैं।
विरेचनोपग एवं विरेचन द्रव्य का ज्ञान - विरेचन कर्म कराने के लिए विभिन्न औषधियों का प्रयोग किया जाता है जिनमें कुछ औषधियाँ विरेचन कर्म कराने वाली होती हैं जिन्हें विरेचक औषधियाँ कहते हैं तथा कुछ औषधियाँ विरेचन करने में सहायता प्रदान करती हैं जिन्हें विरेचनोपग औषधियाँ कहते हैं।
विभिन्न द्रव्य एवं आचार्यों के अनुसार निम्न औषधियाँ आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित हैं।
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