आयुर्वेद में नस्य कर्म ; Nasya Karma in Ayurveda
आयुर्वेद में नस्य कर्म , Nasya Karma in Ayurveda
परिचय – औषधि अथवा औषध सिद्ध स्नेहों को नासामार्ग से दिया जाना नस्य कहलाता है। अरूणदत्त ने "नासायां भवं नस्यम्'' ऐसा कहा है और यह व्याख्या व्याकरणसिद्ध भी है । भावप्रकाश ने "नासाग्राह्य' औषध को नस्य कहा है।
नस्य के पर्याय - शिरोविरेचन, नस्तः कर्त, शिरोविरेक, नावन, मूट विरेचन, नस्तःप्रच्छर्दन आदि ।
परिभाषा - शिरःशून्यता को हटाने, ग्रीवा, स्कन्ध, वक्षःस्थल का बल बढ़ाने और दृष्टि के तेज के संवर्धन के लिए जिस स्नेहन नस्य का प्रयोग किया जाता है उसे नस्य कहा जाता है।
जो औषध द्रव्य सूक्ष्मचूर्ण अथवा द्रव के रूप में नासा मार्ग द्वारा सुँघाया अथवा टपकाया जाता है उसे नस्य कर्म कहते हैं।
ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषानस्यमिष्यते ।
नासा हि शिरसो द्वारं तेन तद्व्याप्य हन्ति तान् ।।(अ.ह.सू. 20/1)
जत्रु के ऊपर रहने वाले अर्थात शिर आदि के विकारों के लिये नस्य की विशेष उपयोगिता होती है क्योंकि नासा को शिर का द्वार समझा जाता है और इस द्वार से नस्यौषध प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण शिर में व्याप्त होकर, उन विकारों को नष्ट करती है।
प्रयोजन एवं महत्व
1. नासिका ही शिरादि का शोधन मार्ग होने के कारण इसका महत्व - जत्रु के ऊपर होने वाले शिर के विकारों में नस्य की विशेष उपयोगिता है क्योंकि नासिका को शिर का द्वार माना गया है, और इस द्वार से प्रविष्ट नस्य सम्पूर्ण शिर में व्याप्त होकर शिर के विकारों को नष्ट करता है।
2. उत्तमांग की क्रिया को सूचारू करने के लिए नस्य का महत्व - इस प्रकार नस्यकर्म उत्तमांग की व्यवस्था को सुचारू बनाकर सम्पूर्ण दैहिक क्रियाओं को सुव्यवस्थित करने में महान् योगदान करता है और इसकी उपयोगिता और लाभ प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध है।
3. कफ, मल आदि के निष्कासन में नस्य का महत्व - नस्य देने नासागम संकोच हट जाते हैं और श्वास नलिका के संकोच पर भी विस्फारक प्रभाव पड़ता है, जिससे कफ निष्कासित होकर श्वास के अवरोध हट जाते हैं।
4. उत्तमांगों का पोषण करने के लिए नस्य कर्म का महत्व - नस्य सेवन से नेत्र-कर्ण-नासिका के रोग, बालों का झड़ना या सफेद होना, पीनस, अर्धावभेदक, मन्यास्तम्भ, शिरःशूल, अर्दित और हनुग्रह आदि रोग खत्म हो जाते हैं।
5. इन्द्रियों को बल प्रदान करने नस्यकर्म का महत्व - नस्यकर्म मुखमण्डल प्रसन्न, विकसित एवं भरा हुआ तथा स्वर स्निग्ध, स्थिर और गम्भीर ध्वनियुक्त होता है ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है, वृद्धावस्था देर से आती है, हनु, दन्त, बाहु और उरःस्थल दृढ़ तथा बलवान होते हैं। चेहरे पर या शरीरावयवों पर पड़ी हुई झुर्रियाँ हटने लगती है और ऊर्ध्वजत्रुगत रोग नहीं हो पाते ।
6. नस्यकर्म द्वारा वातादि दोर्षों के शमन में महत्व - नस्यकर्म अवबाहु ग्रीवास्तम्भ आदि वातव्याधि, ऊर्ध्वजत्रुगत रोग और कफज रोगों में तथा बृहण एवं शमन या शोधन इन तीनों रूपों में लाभ पहुँचाता है।
7. नस्यकर्म द्वारा त्रिदोर्षों के शोधन में महत्व - दोषों के शोधन के अर्थ में विरेचन शब्द प्रयुक्त होने के कारण यह पर्याय दिया गया है तथा सुश्रुत ने शिरोविरेचन शब्द नस्य के विशिष्ट भेद के लिये भी प्रयुक्त किया है । चरक ने नस्य के लिये "नस्तः प्रच्छर्दन' शब्द भी प्रयुक्त किया है। प्रच्छर्दन का अर्थ ग्मन है। "नस्तः प्रच्छर्दन' यह नस्य के द्वारा किया जाने वाला शोधन इस अर्थ में प्रयुक्त है।
नस्य विधि-
नस्यकर्म सुविधा की दृष्टि से निम्न तीन चरणों में सम्पादित किया जाता है - 1. पूर्व कर्म, 2. प्रधान कर्म तथा 3. पश्चात कर्म ।
पूर्वकर्म (Poorvakarma) -
आतुर परीक्षण - नस्यकर्म करने से पहले रोगी का परीक्षण करते हैं कि वह रोगी नस्यकर्म के योग्य है या अयोग्य । नस्यकर्म के योग्य होने की स्थिति में रोगी का बल, प्रकृति, मनोबल, रोग आदि की परीक्षा करते हैं । सामान्यतया नस्यकर्म से पहले स्नेहन तथा स्वेदन पूर्वकर्म किये जाते हैं।
जिनकी उम्र 7 वर्ष से नीचे और 80 वर्ष से अधिक की आयु वाली को नस्य नहीं देते हैं । प्रतिमर्श नस्य जन्म से मृत्यु तक सभी वय में देय है । धूम नस्य 12 वर्ष से ऊपर के आयु मे देय है ।
तापक्रमादि सारणी (T.P.R. B.P. Weight Chart) - रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन आदि को ज्ञात कर सूचीबद्ध करते हैं या चार्ट बनाते हैं।
नस्य के योग्य-अयोग्य रोग एवं रोगी – नस्यकर्म से पहले निम्न लक्षणों के आधार पर रोगी का परीक्षण किया जाता है कि वह नस्य के अयोग्य है अथवा योग्य ।
आतुर का आहार एवं वेशभूषा - जिसका नस्यकर्म करना हो उस व्यक्ति को शोधन हेतु नस्यकर्म के एक रात्रि पहले गुरू तथा उत्क्लेश करने वाले आहार दिये जाते हैं। जैसे—मालपुए, खीर, घी से तर खिचड़ी आदि । नस्यकर्म से एक घंटे पूर्व रोगी को मल मूत्रादि से निवृत्त कराते हैं तथा लघु आहार देते हैं। रोगी का दन्तधावन तथा धूम्रपान कराते हैं । नस्य के सिर पर अभ्यंग करते हैं । ग्रीष्म ऋतु में प्रातः काल 8 से 10 बजे तक एवं शीत ऋतु में मध्यान्ह काल के पश्चात् नस्यकर्म करवाते हैं।
प्रावृट्, शरद और बसन्त इन तीन ऋतुओं में नस्यकर्म करते हैं। गर्मी में पूर्वान्ह में, शीत ऋतु में मध्यान्ह में और वर्षा में जब दुर्दिन न हो, तब नस्य देते हैं।
रोगी को नस्यकर्म के समय न अधिक तंग, न अधिक ढ़ीले कपड़े पहनाते हैं जिससे नस्यकर्म में रोगी को कोई तकलीफ नहीं हो। नस्यकर्म से कपड़े खराब हो जाते हैं इसके लिए रोगी को एप्रिन भी पहनाते हैं।
औषध योग का निर्धारण
रोगी के रोग प्रकृति के अनुसार नस्यकर्म औषध योग का चयन करते हैं । सामान्यतयाः नस्यकर्म के लिए निम्न औषध योग प्रयुक्त किये जाते हैं।
नावन नस्यार्थ योग – पिप्पली, विडंग, सहिजन बीज, अपमार्ग बीज आदि से सिद्ध तैल का प्रयोग करते हैं।
अणु तैल, धन्वन्तरम् तैलम् तथा क्षीरबलादि तैलम् द्वारा भी नावन नस्यकर्म किया जाता है।
अवपीड़ नस्यार्थ प्रयुक्त योग - दूस्वरस, दाडिमपुष्प स्वरस, घृत, दुग्ध आदि में से एक औषधि या इनके मिश्रण का प्रयोग किया जाता है।
ध्मापन नस्यार्थ प्रयुक्त योग – इसमें कटफल का चूर्ण, त्रिकटु आदि तीक्ष्ण औषधियों के चूर्ण को सुँघाया जाता है।
घूम नस्यार्थ प्रयुक्त योग – बड़ी कटेरी, बहेडा, मुलहठी आदि औषधियों के धुएँ को नाक से खींचकर मुख से निकाला जाता है ।
प्रतिमर्श एवं मर्श नस्यार्थ प्रयुक्त योग – अणु या षड्विन्दु तैल की 2 बूँद की मात्रा नाक में डाली जाती है।
स्नेह नस्य में प्रयुक्त स्नेह की मात्रा -
स्नेहन नस्य –
उत्तम मात्रा – 32 बूंद प्रत्येक नासाछिद्र में
मध्यम मात्रा – 16 बूंद प्रत्येक नासाछिद्र में
हीन मात्रा – 8 बूंद प्रत्येक नासाछिद में
आवश्यक उपकरण एवं परिचारक
उपकरण - पीछे की तरफ झुकी हुई कुर्सी, द्रोणी, छोटी भगोनी, नस्यकर्म हेतु ड्रॉपर या किनारे से मुड़ी हुई नालीदार कटोरी, दीप प्रज्वलन पात्र जैसा नस्यपात्र आदि बर्तन, तौलिया, औषध द्रव्य आदि,गिलास, उष्ण जल का पात्र, नेपकीन, एप्रीन, नेत्र बन्धन पट्टिका (Eye Bandage), मापअंकित कवल हेतु उष्ण जल पूरित पात्र (Pot with measurement), दस्ताने (Gloves), नाड़ी स्वेदन यन्त्र, आदि ।
परिचारक (Attendent) - नस्यकर्म के लिए दो परिचारक की आवश्यकता होती है।
प्रधान कर्म
नस्य क्रिया विधि - नस्यकर्म से पूर्व रोगी के शिर आदि का स्नेहन स्वेदन किया जाता है। स्नेहन, स्वेदन के लिए प्रायः बला तैल, असनएलादि तैल तथा स्वेदन के लिए हरिद्रा पिण्ड, बालुका, वाष्पस्वेद का प्रयोग कर रोगी को नस्य कर्म के लिए तैयार किया जाता है।
रोगी का आसन (कुर्सी या द्रोणी) पूर्वाभिमुख रखते हैं तथा रोगी को नस्यकर्म के बारे में सान्त्वना देते हुए समझाते हैं।
नस्य द्रोणी पर रोगी को लिटाते हैं तथा उसकी आँखों पर पट्टी बाँधते हैं । रोगी के अभ्यंग, स्वेदन आदि का पुनः निरीक्षण करते हैं। रोगी के सिर को पीछे की ओर झुकाकर नस्य पात्र या ड्रॉपर से औषधि का धीरे-धीरे नासारन्द्रों में डालते हैं यदि औषध द्रव रूप मे न होकर चूर्ण रूप में हो तो किसी ट्यूब या नलिका में औषध चूर्ण को भरकर नासा गुहा में फूंकते हैं।
धूम नस्य में औषधियों के धुएँ को धूम्रवर्ति या धूम्रयन्त्र द्वारा नासिक से खींचा जाता है। नाक में श्वास खींचने का काम तीन या चार बार करते हैं या सिर को तौलिये आदि से आच्छादित कर उसमें धुंआ भरते हैं जिससे नासा द्वारा धूम अच्छी तरह ग्रहण कर लिया जाता है।
नस्य को खींचने के पश्चात् मुख द्वारा बाहर निकाला जाता है। बाहर निकले हुए मल कफादि को उष्ण जल से भरे हुए पात्र में थुंकवाते हैं। रोगी को बैचेनी होने की दशा में उसके ललाट, नासा एवं शंख प्रदेश पर गर्म हाथों से स्वेदन व अभ्यंग निरन्तर करते रहते हैं।
परिचारक द्वारा कर्तव्यपूर्वक नस्यकर्म के समय ललाट के ऊपर शंख प्रदेश पर, नासा पर संवाहन किया जाता है। अपने हाथों को रगड़कर गर्म गर्म हाथों से सहलाया जाता है।
नस्यकर्म में कफ का निष्कासन होता है। नस्यकर्म में निकले हुए कफादि की मात्रा को सारणीबद्ध करते हैं।
सम्यक्, हीन व अतियोग का विश्लेषण - नस्यकर्म होने के पश्चात् रोगी के उत्पन्न लक्षणों का ध्यान से निरीक्षण करते हैं। यदि हीन योग के लक्षण उत्पन्न होने पर पुनः नस्यकर्म में प्रयुक्त द्रव्योषध देते हैं। अतियोग के लक्षण उत्पन्न होने पर नस्यकर्म क्रिया को रोक कर विश्राम पञ्चकमका कराते हैं । सम्यक् योग की स्थिति में आगे की प्रक्रिया करते हैं।
नस्य के व्यापद् और प्रतिकार - नस्य व्यापद् दो तरह के होते हैं - 1. दोषों का उत्क्लेश होना और 2. दोषों का क्षय होना । प्रथम व्यापद् में शोधन तथा शमन चिकित्सा करते हैं, दूसरे में बृंहण चिकित्सा करते हैं।
यदि कफज रोग में कास श्वास, पीनस, मन्दाग्नि आदि हो, तो त्रिभुवनकीर्ति, त्रिकटु चूर्ण, कस्तूरी भैरव और दशमूलारिष्ट का प्रयोग करते हैं।
कृश शरीर, तृष्णार्त, व्यायाम-श्रान्त और गर्भिणी स्त्री को नस्य देने से वात प्रकोप होकर वातज रोग होते हैं। अतः इनमें वातनाशक स्नेहन, स्वेदन और बृंहण चिकित्सा करते है । वातज शूल, अंगमर्द, मुखशोष आदि के होने पर तापस्वेद, अश्वगन्धादि घृत, विषतिन्दुक वटी तथा शतावरी चूर्ण आदि का प्रयोग करते हैं । मूर्छित रोगी का शीतल जल से परिसेचन करते हैं।
पश्चात् कर्म - नस्यकर्म के समय व नस्यकर्म के पश्चात् निम्नलिखित उत्पन्न लक्षणों का विश्लेषण करते हैं -
तापक्रमादि को सूचीबद्ध करना - प्रधान कर्म के पश्चात् पुनः रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन तथा जलाल्पता (Dehydration), नस्यकर्म में निकले द्रव, कफादि का माप ज्ञात कर सूचीबद्ध करते हैं या चार्ट बनाते हैं । पूर्वकर्म में लिये गये विवरण व अभी लिये विवरण में अन्तर ज्ञात कर रोगी की वर्तमान स्थिति को ज्ञात करते हैं।
रोगी के औषध, आहार (संसर्जन कर्म आदि) - नस्यकर्म का पश्चात् कर्म निम्न चरणों में किया जाता है -
1. त्वरित् करणीय कर्म – नस्यकर्म के पश्चात् रोगी को दो मिनट तक उत्तान लिटाकर विश्राम कराते हैं । ग्रीवा, ललाट और कपोल (गाल) पर तथा पाद तल और गर्दन पर सुखोष्ण मर्दन और स्वेदन करते हैं । सुखोष्ण जल से मुख का प्रक्षालन करवाते हैं
2. धूम्रपान - धूम्रपान नस्यकर्म के पश्चात् कण्ठ, नासिका एवं शिरःस्थ कफ को ऐलादिगण की औषधियों से धूम्रवर्तिका बनाकर उसे घी में तर करके नासा से धूम्रपान करवाते हैं । इसमें मुख द्वारा धुएँ को छोड़ा जाता है।
3. कवल एवं गण्डूष - नस्यकर्म के पश्चात् मुख में औषध द्रव या उष्ण जल को धारण कराया जाता है जिससे कफ का छेदन होता है तथा मुखगुहा स्वच्छ हो जाती है। कवल की औषध में यवक्षार, सज्जीक्षार, टंकणभस्म तथा रूक्ष, कटु, अम्ल, लवण रस युक्त द्रव्यों का प्रयोग करते हैं।
4. आहार – नस्यकर्म में लघु आहार जैसे—यवागु, पेया आदि निर्धारित मात्रा में देते हैं । शिरोस्नान, मद्य सेवन, क्रोध, शोक एवं धूप का सेवन आदि वर्जनीय हैं।
5. विहार सम्बन्धी निर्देश - रोगी को न अधिक शीतल तथा न अधिक उष्ण अर्थात् समशीतोष्ण एवं शीतल तथा तीव्र वातरहित, धूल व धुंए से रहित वातावारण में रहने का निर्देश देते हैं।
नस्यकर्म के पश्चात् रोगी को समशीतोष्ण कक्ष में विश्राम करवाते हैं तथा सायंकाल को होने वाली नासा में पीड़ा एवं सरसराहट आदि के बारे में समझाते हैं । क्योंकि नस्यकर्म की औषध योग का कुछ भाग उदर में भी चला जाता है जिसके कारण उसको बैचेनी का अनुभव भी हो सकता है।
तेज आवाज में बोलना, अधिक देर तक बैठना, देर तक खड़े रहना, शोक करना, क्रोध करना, अधिक चलना, मैथुन, रात्रि जागरण, दिवाशयन, आदि का निषेध के लिए निर्देश देते हैं।
नस्यकर्म के प्रकार एवं मात्रा - नस्य के प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में नस्य कर्म भेद से तीन प्रकार तथा आश्रय भेद से सात प्रकार का बताया गया है। आयुर्वेद के विभिन्न मनीषियों ने अपने मतानुसार अलग-अलग भेद भी किये हैं ।
आश्रय भेद से नस्य के प्रकार - नस्यार्थ द्रव्य के विविध अंगों का प्रयोग किया जाता है । चरक ने द्रव्य के उपयुक्तांग के अनुसार नस्य के सात प्रकार निर्दिष्ट किये हैं - 1. फलनस्य, 2. पत्रनस्य, 3. कन्दनस्य,4. मूलनस्य, 5. पुष्पनस्य, 6. त्वक नस्य एवं 7. निर्यास नस्य ।
1. फल नस्य – फलों के द्वारा दिया जाने वाले नस्य फल नस्य है । इसमें अपामार्ग, पिप्पली, विडंग, मरिच, शिग्रु, शिरीष, पीलु, अजवाइन, अजमोदा, एला, हरेणुकादि फर्लो का उपयोग निर्दिष्ट है।
2. पत्र नस्य – सुमुख, तुलसी, सप्तपर्ण, आरग्वध, नस्यछिकनी, मूलक, श्रृंगबेर, लहशुन, तर्कारी, सर्षप, तालीशपत्र, तमालपत्र, इनके पत्रों का उपयोग किया जाता है।
3. मूलनस्य – अर्क, अलर्क, कुष्ठ, नागदन्ती, वचा, भारंगी, मालकांगनी, इन्द्रायण, ब्राह्मी, अतिविषा, कनेर, कन्दूरी, करंज इनके मूल का नस्यार्थ प्रयोग किया जाता है।
4. पुष्पनस्य – लोध्र, मदन, सप्तपर्ण, निम्ब अर्क इनके फूलों का नस्यकर्म में प्रयोग होता है।
5. निर्यास नस्य – देवदारू, हिंगु, अगुरू, सरल, शल्लकी, ताड, महुवा, लाक्षा आदि के निर्यास का प्रयोग नस्यार्थ किया जाता है।
6. त्वक् नस्य - तेजोवती, गुडूची, इंगुदी, शोभाजन, बड़ी कटेरी, दालचीनी, मेढ़ासिंगी इनकी त्वचा नस्य में प्रयोग की जाती है।
उपर्युक्त द्रव्यों के चूर्ण, कल्क, स्वरस, क्षीर, क्वाथ, सार उदक, धूम, मांसरस, सिद्ध तैल, घृतादि स्नेह, मद्य इनका यथायोग्य नस्य के लिये प्रयोग किया जाता है ।
विधि भेद से नस्य के प्रकार
1.प्रधमन
2. अवपीड
3. धूम नस्य
द्रव्य भेद से नस्य के प्रकार
1.प्रधान
2. अवपीड
3. धूम नस्य
द्रव्य भेद से नस्य के प्रकार
1. चूर्ण
2. कल्क
3.क्षीर
4. मांस रसादि
5. धूम
6. क्वाथ
7. मद्य
8. स्नेह
9. सार
कर्म के आधार पर नस्य भेद -
1. रेचन, 2. तर्पण तथा 3. शमन ये तीन भेद हैं।
कार्मुक भेद से नस्य के प्रकार
रेचन - संज्ञा प्रबोधन (शोधन)
बृंहण - कृमिघ्न (शोधन)
शमन - शमन दो प्रकार से-1. स्तम्भन व 2. कर्षण
स्तम्भन - स्तम्भन दो प्रकार से है - 1. रक्त स्तम्भन (धातु स्तम्भन) व 2. दोष स्तम्भन ।
आयुर्वेदाचार्यों के विभिन्न मतानुसार नस्य के प्रकार
चरक आचार्य चरक ने नस्य के पाँच प्रकार बताये हैं - 1. नावन दो प्रकार से है - स्नेहन व शोधन, 2. अवपीड नस्य के दो प्रकार - शोधन व स्तम्भन 3. ध्मापन, 4. धूम नस्य के 3 प्रकार - प्रायोगिक, विरेचक, स्नेहिक 5. मर्श इसके दो प्रकार हैं 1. स्नेहन व 2. विरेचन
सुश्रुत - शिरोविरेचन, स्नेहन
वाग्भट - विरेचन, बृहण, शमन
काश्यप - बृंहण, कर्षण
शार्ङ्गधर - रेचन, स्नेहन
भोज - प्रायोगिक, स्नैहिक
विदेह - संज्ञाप्रबोधन, स्नैहिक
आचार्य चरकानुसार नस्य के भेदों का विवेचन
1. नावन – अंगुली को स्नेह में डुबोकर या ड्रॉपर की सहायता से नासिका के छिद्रों में बूंद-बूँद टपकाने की क्रिया को नावन नस्य कहा जाता है। यह 1. स्नेहन और 2. शोधन दो प्रकार का होता हैं।
2. अवपीड नस्य - नासिका में किसी औषध के कल्क को निचोड़कर उसका रस डालने की क्रिया को अवपीड़ नस्य कहते हैं । यह भी शोधन और स्तम्भन दो प्रकार का होता है।
रक्तपित्त में रक्तस्तम्भनार्थ अथवा क्षीण में दोषशमनार्थ, स्तम्भन अवपीड नस्य देना चाहिए। इस नस्य में दुग्ध, इक्षुरस, घृत, दूस्विरस, दाडिमपुष्पस्वरस, शर्करोदक आदि का प्रयोग किया जाता है।
3. ध्मापन नस्य - ध्मापन नस्य को प्रधमन नस्य भी कहते हैं। यह शोधन नस्य है । नासिका में औषध चूर्ण को एक छह अंगुल लम्बी, दोनों तरफ से खुली हुई नलिका में रखकर फेंक देने की क्रिया को की ध्मापन नस्य कहते हैं। इसका प्रयोग अपस्मार, उन्माद आदि रोगों में होता है।
4. धूम्र नस्य - औषध को चिलम की आग में रखकर हुक्के पर चढ़ाकर नासिका द्वारा उसकी धुआँ (धूम) खींचने को ही धूम नस्य कहा जाता है। इसमें नाक से खींचे गये धूम को मुख द्वारा बहिर्गमन कर दिया जाता है।
दूसरा प्रकार - इसमें किसी अंगीठी में कोयला जलाकर निर्धूम हो जाने पर उसमें औषध डालकर नासिका से उसके धुएँ को खींचना होता है। शिर को लम्बे तौलिये से बाँधा जाता है । फिर उसी तौलिये के दूसरे हिस्से से अंगीठी को ढंका जाता है ताकि उसका धुआँ बाहर न फैल सके और सीधा नाक में ही प्रवेश करे । इस नस्य से पीनस, कण्ठ रोग, नासावरोध आदि को लाभ पहुँचता है । इसमें प्रयोग ली गई औषधियाँ जैसे-बहेड़ा, बड़ी कटेरी, मुलहठी आदि का धुआँ दिया जाता है।
5. मर्श - इसमें तर्जनी अंगुली को दो पर्व तक स्नेहन में भिगोकर नासारन्ध्र में स्वाभाविक रूप से जितनी बूँद स्नेह गिरे उसे मर्श कहते हैं । इसमें 10 बूँद उत्तम, 8 बूँद मध्यम व 6 बूंद को हीन नस्य कहा है।
इसी प्रकार यदि स्नेह की न्यून मात्रा नित्य प्रति नासा में डाली जाये जिससे नासा की आर्द्रता आदि बनी रहती है तो उसे प्रतिमर्श नस्य कहते हैं।
प्रतिमर्श - अंगुली को स्नेह में डुबोकर उसको नासिका में टपकाकर खींचने को ही प्रतिमर्श नस्य कहा जाता है। इसमें टपकाये जाने वाले स्नेह की मात्रा 2 बूंद होती है । इस नस्य को प्रातः सायंकाल ही किया जाता है। इसे सभी प्रकार की ऋतुओं और सभी उम्र के व्यक्तियों को दिया जा सकता है। इसमें स्नेह की मात्रा इतनी ही हो कि वह नासास्रोत से कण्ठ में पहुँच जाये । मर्श व प्रतिमर्श नस्य में सिर्फ मात्रा का ही अन्तर है।
नस्यकर्म में सावधानी – नस्य देते समय (द्रव औषधि का) एक नासा पुट को बन्द रखकर दूसरे में औषधि डालकर रोगी को खींचने को कहते हैं । फिर पहली नस्य युक्त नासा बन्द रखकर दूसरी नासा में औषध डालकर खींचने को कहते हैं।
बृहण एवं शोधन नस्यकर्म का ज्ञान - नस्यकर्म स्नेहन, शोधन, विरेचन, स्तम्भन, तर्पण, शमन, कर्षण, बृंहण, और संज्ञा प्रबोधन आदि कार्यों को करता है, जिससे इसके बहुआयामी कार्यक्षमता का विस्तृत ज्ञान होता है।
किसी औषध द्रव्य अथवा औषध चूर्ण को नासारन्ध्रों में सुँघाने या नाक में डालने की प्रक्रिया को ही नस्य कहते हैं।
शोधन नस्य का ज्ञान - चूर्ण के रूप में दिया हुआ प्रघमन नस्य अपने कटु, तीक्ष्ण एवं उष्ण गुण से गन्धवह स्रोत को उत्तेजित कर कफ का स्राव कराता है, जिससे शोधन हो जाने से जत्रु के ऊर्ध्वभाग में होने वाले विकारों का शमन हो जाता है।
नासारन्ध्र ही सिर का मार्ग है, इसके द्वारा दी हुई औषध द्रव्य नासारन्ध्रों में प्रवेशित होकर सकल शिर में फैल जाती है या व्याप्त हो जाती है जिससे इससे सम्बन्धित रोगों में शीघ्र लाभ होता है।
शोधन नस्य के अन्तर्गत शिर के अन्दर संचित कफादि
दोषों को बाहर निकाला जाता है।
घ्राणेन्द्रिय में इन्द्रियों के प्राणों का वहन करने वाले स्रोतस स्थित है। श्रोत्र, श्रृंगाटक, चक्षु, कण्ठ आदि मुख मार्ग शिर में खुलते हैं। यह स्पष्टतः देखा जा सकता है कि नस्य के द्वारा औषधि प्रयोग से शिर में स्थित विकृत कफ जब नासामार्ग से बहता है तो शिरःशूल, दुष्ट प्रतिश्याय, शिर का भारी होना, अर्धावभेदक, मूर्छा अपस्मार आदि में लाभ होता है।
नस्य के प्रयोग से नासान्तर्गत श्लेष्मिक कला में क्षोभ होता है और सम्बद्ध अवयवों में रूका हुआ कफ द्रवित होकर नासाद्वार से निकल जाता है और उसके द्वारा बना हुआ अवरोध दूर हो जाता है। फलतः शिर का रक्तसंवहन तेज हो जाता है तथा प्राणवह स्रोतोऽवरोध दूर हो जाता है।
शोधनार्थ नस्य योग - कायफल चूर्ण, अपामार्ग, पिप्पली, मरिच, विडंग, सषर्प, कूठ आदि तीक्ष्ण द्रव्य या उनसे निर्मित औषध योगों यथा-मरिच्यादि नस्य, सैंधवादि नस्य का प्रयोग किया जाता है।
बृंहण नस्य का ज्ञान – बृंहण नस्य के अन्तर्गत नासा द्वारा स्नेह का प्रयोग शरीर के उर्ध्वजत्रुगत भाग को पोषण तथा बल देने के लिए किया जाता है जिसके अन्दर स्निग्ध व मृदु द्रव्य जैसे-घृत, तैल आदि बृंहण द्रव्यों से सिद्ध कर प्रयोग में लिये जाते हैं।
स्निग्ध नस्य शिर में स्थित नाड़ीमण्डल का बृंहण, तर्पण तथा शमन करता है। तीक्ष्ण नस्य शोधन का कार्य करता है । दूध, शर्करोदक या मांसरस आदि का स्नेह के साथ प्रयोग करने से बृंहण, तर्पण आदि कार्य होते हैं।
बृहपार्य नस्य योग - अणुतैल, नारायण तैल, माषादि तैल, क्षीरबलादि तैल, धन्वन्तर तैल आदि इनके नस्य का तथा इनके योग में सिद्ध घृत का नस्य बृंहणकर्म करता है । अर्थात शिर में स्थित धातुओं का पोषण कर उन्हें बल प्रदान करता है।
नस्यकर्म के सम्यक योग के लक्षण - निम्न लक्षणों के आधार पर नस्यकर्म के सम्यक् होने का ज्ञान होता है -
1. शिरोविरेचन से शरीर में हल्कापन उत्पन्न होना
2. सुखपूर्वक व समय पर नींद आना व जागना
3. प्रयुक्त नस्य विकार का प्रशमन
4. इन्द्रियों और मन में प्रसन्नता होना
5. शिर में लघुता होना
6. स्रोतस शुद्ध होना
नस्यकर्म के हीन योग के लक्षण - निम्न लक्षणों के आधार पर नस्यकर्म के हीन मात्रा में होने के ज्ञान होता है -
1. वातविकृतियाँ उत्पन्न होना
2. इन्द्रियों में रूक्षता होना
3. प्रयुक्त नस्य विकार में वृद्धि
4. कण्डू
5. अंग गौरव
6. नासा, नेत्र, मुख से कफ तथा लाला स्राव होना
नस्यकर्म के अतियोग के लक्षण - निम्न लक्षणों के आधार पर नस्यकर्म के अतियोग का ज्ञान होता है -
1. नासा कफस्राव
2. शिर में भारीपन
3. इन्द्रियों में विभ्रम आदि
4. मस्तुलुंग का बाहर आना
5. वात प्रकोप होना
6. इन्द्रियों में विभ्रम
7. शिरः शून्यता के लक्षण
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